प्रेमचंद की नीली आँखें' डॉ. धर्मवीर की यह नवीनतम कृति है। यह पुस्तक लिख कर डॉ. धर्मवीर ने हिन्दी आलोचना की जड़ता को तोड़ा है और उसे एक नई दृष्टि दी है। हिन्दी आलोचना रूढ़ियों से ग्रस्त थी । आधुनिकता और बदलाव का कोई अर्थ नहीं रह गया था जब भेष बदल-बदल कर बार-बार एक ही तबके के लोग एक ही बात रखे जा रहे थे। वादों की गफलत में परिवार और समाज में कथनी और करनी के पुराने अन्तर को बढ़ावा मिल रहा था। राष्ट्र निर्माण और मानव कल्याण से आलोचना का कोई सरोकार नहीं था। वह संस्कृति के नाम पर घरों का बिगाड़ थी और व्यक्ति को लगातार पतन की ओर ले जा रही थी। डॉ. धर्मवीर ने अपनी इस पुस्तक के माध्यम से इस बिगाड़खाते और पतन को रोका है। वे इस काम में पूरी तरह सफल हुए हैं।
यह हिन्दी आलोचना का ही मामला नहीं है, बल्कि भारतीय साहित्य की और विश्व साहित्य की आलोचना के क्षेत्र में नया योगदान है। यूँ, यह डॉ. धर्मवीर की प्रखर कलम से एक और गौरव-ग्रंथ का प्रणयन हो गया है। यही कहा जा सकता है कि हिन्दी आलोचना में नया मोड़ इसी रास्ते से आना बदा था। बिना पर्सनल कानून का अध्ययन किए साहित्यिक आलोचना की पुस्तकें लिखी जा रही थीं। फलतः, जारकर्म की बुराई पर कोई आक्रमण नहीं हो रहा था। बुराई को मिटाने में साहित्य समाज की मदद में खड़ा नहीं हो रहा था। एक तरह से साहित्य के नाम पर लोगों को धोखा हो रहा था।
डॉ. धर्मवीर की यह पुस्तक - 'प्रेमचंद की नीली आँखें' हिन्दी आलोचना का महाकाव्य है। इस पुस्तक के जरिये वे आलोचना के मूल सिद्धान्तों और सरोकारों से जूझे हैं। अपनी स्थापना में उन्होंने कलाकार में और जार में अन्तर किया है। रचनाकार को हर हमले से बचाया है और जार की चौतरफा भर्त्सना की है। भारतीय संदर्भों में उन्होंने कला को संन्यासियों की हेयदृष्टि और जारों की कुदृष्टि से मुक्त कर के उसे समाजोपयोगी बनाया है। अब इसका सही रसास्वादन किया जा सकता है। यूँ, यह मात्र आलोचना की पुस्तक नहीं है, बल्कि इसने आलोचना का नया रास्ता खोला है। यह एक बड़ा संवाद है, जो पर्सनल कानून और उससे उपजी संस्कृति से है। पुस्तक किसी व्यक्ति के विरोध में नहीं है व्यक्ति मात्र माध्यम हैं, विचारों के वाहक हैं।
इस पुस्तक का फायदा यह हुआ है कि अब तक हिन्दी आलोचना अपने मूल साहित्यकार स्वामी अछूतानंद से पूरी तरह बेखबर थी। डॉ. धर्मवीर ने अपनी इस पुस्तक के माध्यम से स्वामी अछूतानंद को हिन्दी आलोचना के केन्द्र में खड़ा कर दिया है। यह हिन्दी आलोचकों की सबसे बड़ी कमजोरी थी कि वे प्रेमचंद के उपन्यास 'रंगभूमि' का असल संदर्भ नहीं खोज पाए थे। डॉ. धर्मवीर ने इस पुस्तक में वह काम किया है जो उनकी इस विशेष दृष्टि के अभाव में संभव नहीं था। स्वामी अछूतानंद को पहली बार हिन्दी साहित्य में उचित स्थान मिला है। यह हिन्दी साहित्य के इतिहास की एक बड़ी चूक सुधार हुई है।बड़े साहित्यिक काम के बाय-प्रोडक्ट निकला करते हैं। अब साहित्य इंटर-डिस्प्लेिनरी हो गया है। वह दूसरे क्षेत्रों के कार्य-कलापों से जुड़ी हुई चीज है । इस अन्तर- विषयक पद्धति की वजह से डॉ. धर्मवीर की इस पुस्तक में भारत के इतिहास, धर्म और समाज की एक बिल्कुल नई यूरेका वाली और अति महत्वपूर्ण खोज हुई है, जो कायस्थ जाति के मूल उद्गम की है। इससे भारत के प्राचीन इतिहास की एक खोई हुई कड़ी जुड़ गई है। डॉ. धर्मवीर की यह खोज इतिहास के बड़े लाभ की है। इसके दूरगामी असर होंगे। निश्चित रूप से, यह उनके शोध जीवन की एक महान उपलब्धि है। इस पुस्तक को पढ़ने से पता चल जाता है कि यह हिन्दी में 'धर्मवीर 'युग' चल रहा है।
डॉ. श्यौराजसिंह बेचैन
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