पूर्ण पुरुष लड़खड़ाने को बाध्य और चलने को विवश अस्मि पीड़ा की कहानी है। अपने तेवर में अनित्य आधुनिक ये नाटक कथ्य में स्त्री-पुरुष के शाश्वत आकर्षण और चिर मुठभेड़ों में घायल कर हो रहे दाम्पत्य की कथा वाचता है।
चित्रकार समग्र से जी-जान से प्रेम करने वाली बीद्धिक 'शाश्वती' विवाह के बाद भीतिक स्थओं से भरी महत्वाकांक्षी और स्वार्थी स्त्री में बदल जाती है। उसकी अनन्त अपेक्षाएँ सामान्य पति समग्र में पूर्ण पुरुष तलाशती है और न मिलने पर सर्वसमर्थ अतिरेक' की ओर आकर्षित हो जाती है किन्तु शाश्वती पूरी तरह स्वार्थी, सवदनाशून्य और नकारात्मक चरित्र है, यह भी अपूर्ण सत्य है। इसके वरअक्स प्रतिभाशाली चित्रकार कथा-नायक 'समग्र' संवेदनशीलता-जन्य अकर्मण्यता का वाहक है जिसे एक चुटकी अहंकार विश्वसनीयता से भर देता है। तथाकथित अव्यावहारिक और असफल ये पात्र भी दाम्पत्य में चोटिल होकर एक प्रेमिल साथी की आस में आस्था की ओर झुकता है, किन्तु नान्यः पन्था ।
नाटक हो या जीवन, पूर्णत्व की अवधारणा ही असत्य है, किसी को 'पूर्ण' प्राप्त नहीं होता। अपूर्णताबोच और अतृप्ति में जीते कुटित पात्र प्रयत्नहीन होकर अन्तहीन शिकायतों, असहिष्णुता, खीझ और सवदनहीन क्रूरता को वहन करने लगते हैं। नाटक सुखान्त स्थायी है या क्षणिक ये पाठक / दर्शक स्वयं तय करे। पूर्ण पुरुष शीर्षक होते हुए भी प्राणी मात्र की अपूर्णता के वाहक इस नाटक के लिए नाटककार स्पष्ट कहते -"इस कथा में कोई भी प्रतिनायक नहीं है, सबके अपने स्टैंड हैं, सबको पूर्णता की तलाश है, फिर भी कोई पूर्ण नहीं है। पूर्णता की यात्रा हो सकती है, लेकिन गन्तव्य नहीं' नाटक जैसे दृश्यात्मक विधा की प्रसिद्धि का एक अनिवार्य मानक मंचन भी है। कई शहरों में सफलतापूर्वक मंचित हो चुके इस नाटक की कई प्रस्तुतियों आयोज्य हैं। अवश्य ही यह नाटक पुस्तक रूप में भी चर्चित होगा और पाठकों के मानस में बना रहेगा।
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