नाटक काली बर्फ़ अब नाट्य त्रयी कन्धे पर बैठा था शाप के साये से निकलकर अपनी अलग पहचान बना रहा है-यह निस्सन्देह प्रसन्नता का विषय है। इस नाटक के केन्द्र में आतंकवाद से उपजा विस्थापन और उसका दर्द है जो आज विश्व की एक विकराल समस्या है। दुनियाभर में करोड़ों लोग विस्थापित हैं और यह अमानवीय स्थिति लगातार अपने पाँव पसारती जा रही है।
आज लगभग दो दशक बाद भी यह नाटक अपनी प्रासंगिकता की ज़मीन पर मज़बूती से खड़ा है। यह उन स्थितियों का नाटक है जिसमें कश्मीर बेबस आँखों के सामने दम तोड़ती जीवन-संस्कृति है, घायल अस्मिता है। इसमें अपनी जड़ों से उखड़ने का दर्द ढोते परिवार हैं तो घाटी में आतंकवाद के साये में डरी-सहमी-मजबूर ज़िन्दगी जीते लोग भी हैं। अपनी समग्रता में जो सामाजिक, भौगोलिक, सांस्कृतिक जीवन और मनोजगत की तबाही है। मगर साथ ही मन में एक ऐसा खुशनुमा अतीत है, कश्मीरियत है जिससे उम्मीद और सम्भावनाओं के सपने बराबर बने रहते हैं।
प्रत्येक कृति की अपनी एक रचनात्मक यात्रा होती है। सृजन की संवेदना या विचार के बीज का अपनी मिट्टी में पलकें खोलना ही इस यात्रा की शुरुआत है। काली बर्फ़ के सन्दर्भ में यही कहा जा सकता है कि सर्वप्रथम इस नाटक का प्रकाशन जनवरी-मार्च 2004 में 'पश्यन्ती' पत्रिका में हुआ था। अगले वर्ष यानी फ़रवरी 2005 में श्री मुश्ताक काक के निर्देशन में इसे श्रीराम सेंटर, दिल्ली के रंगमंडल ने मंचित किया। रंगमंडल ने इसकी आठ सफल प्रस्तुतियाँ दीं ।
वर्ष 2006 में काली बर्फ़ भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन से प्रकाशित नाट्य त्रयी कन्धे पर बैठा था शाप का हिस्सा बना। कुछ वर्ष बाद यानी 2011 में जम्मू-कश्मीर राज्य के कश्मीर दूरदर्शन (डी.डी. कश्मीर) पर यह तेरह कड़ियों के धारावाहिक के रूप में प्रसारित हुआ । देश के कुछ विश्वविद्यालयों व महाविद्यालयों के पाठ्यक्रम में सम्मिलित होने के बाद अब यह नाटक अपनी एक अलग अस्मिता के साथ पुनः प्रकाशित हो रहा है।
-पुस्तक की भूमिका से
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