समाज न्याय पर स्थित है और न्याय क़ानून पर। और क़ानून गधा है! (इसका मतलब यह नहीं कि समाज गधेपन पर आश्रित है। यह पूर्ण सत्य नहीं हो सकता क्योंकि गधा सिर्फ़ बुद्धिहीन होता है, क्रूर नहीं।) परम्परागत आचार-विचार और जंग लगी रूढ़ियाँ भी समाज के अलिखित क़ानून होते हैं। और इसकी चौखट जाने-अनजाने लाँघने वाला व्यक्ति समाज में सज़ा के योग्य होता है। न्याय-अन्याय के इस भयावह खेल में मशगूल समाज की अदालत में एक मुक़दमा पेश किया गया है। शरीर के 'शरीरत्व' का शाप ढोने वाली एक मनस्वी लड़की पर। मुकदमा चलाया जा रहा है। इस अभियोग का उद्देश्य न तो सनातन मूल्यों की जाँच करना है और न ही न्याय-अन्याय से किसी को कुछ लेना-देना है। तयशदा चौखट में जीते-जीते ऊब गये, थके-माँदे समाज ने मनोरंजन हेतु इस खेल का आरम्भ किया है। खेल की। अन्तिम परिणति के बारे में किसी को कछ लेना-देना नहीं है। सिर्फ़ समय काटना है। मुक़दमा जितना सनसनीखेज़ होगा। उतना समय अच्छा बीतने वाला है। - श्रीराम लागू
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