जगदीश व्योम का प्रस्तुत गीत-नवगीत संग्रह इतना भी आसान कहाँ है में विविध रस एवं भावों के गीत हैं प्रकृति का मनोहारी चित्रण है; (बादल कौन देश से आये, बादल ने छोड़ दिये बूँदों के तीर, जगती की पीर हरने वाली चर्चा आदि ।); ममता का मानसरोवर माँ की गरिमा एवं गुरुत्व की अभिव्यंजना है; कवि ने घर की कविता, दूसरे के घर का छन्द, आँगन की शोभा, सावन की सुषमा, धान- दूब की संस्कृति बेटी के पावन गंगाजल में डुबकी लगायी है। वहीं अपने बचपन में लौटकर पेड़ से टपकते हुए पके आम के लिए बच्चों के साथ दौड़ की प्रतिस्पर्द्धा की है। मेरा पर चढ़कर भुने हुए भुट्टों का आनन्द उठाया है, भरी दोपहरी में नहर के पुल से कूद-कूदकर खूब नहाया है। महीयसी महादेवी वर्मा और सुमित्रानन्दन पन्त के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित की है। व्योम ने समसामयिक परिस्थितियों की विसंगतियों को अनेक गीतों में वर्णित किया है, जैसे-भीषण कोरोना वायरस की त्रासदी का, पाप एवं कल्मष को धोने वाली, अभिशापित, सन्त्रस्त, मटमैली गंगा, जो आज भगीरथ को ढूँढ़ रही है। इसी तरह अन्य अनेक प्रकार के भावों के गीत हैं; किन्तु सर्वाधिक गीत समय से संवाद करते हुए 'मानववाद' की स्थापना के हैं।
व्योम ने शोषण, जुल्म, भ्रष्टाचार, अत्याचार की भीषण ऊष्मा के ताप का न केवल अनुभव करते हुए; बल्कि उसके सन्त्रास को झेलते हुए 'लघु मानव' की प्रतिष्ठा की है और गीतों को 'समय की लहर' बतलाया है। वस्तुतः अखण्ड आत्मविश्वास से ही दुर्बलता की कोख से साहस का जन्म होता. है और साहस से सत्य की अग्नि प्रज्वलित होती है; वरना 'इतना भी आसान कहाँ है, पानी को पानी कह पाना।' आत्मविश्वास से लबालब कवि की वाणी जब प्रस्फुटित होती है, तो समाज में फैले हुए कुहासे को | विदीर्ण कर देती है।
-भूमिका से
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