पलकें भीगीं। साँसें भारी। मन बेदम।
इन कविताओं को समाज में बिछे लाल कालीनों के नीचे से निकाल कर लिखा गया है-सुनन्दा पुष्कर का जाना, बलात्कार की शिकार निर्भया, एसिड अटैक से पीड़ित या बदबूदार गलियों में अपने शरीर की बोली लगातीं या फिर बदायूँ जैसे इलाकों में पेड़ पर लटका दी गयीं युवतियाँ इस संग्रह की साँस हैं।
ये सभी कभी किसी की रानियाँ थीं। बाहर की दुनिया जान न पायी-नयी रानी के लिए पुरानी रानी को दीवार में चिनवाना कब हुआ और कैसे हुआ। रानी के ख़िलाफ़ कैसे रची गयी साज़िश और सच हमेशा किन सन्दूकों में बन्द रहे।
ये कविताएँ प्रार्थनाएँ हैं जो हर उस तीसरी औरत की तरफ़ से सीधे रब के पास भेजी गयी हैं। जवाब आना अभी बाकी है। इसलिए यह भाव अपराध के सीलन और साज़िशों भरे महल से गुज़र कर निकले हैं। वे तमाम औरतों जो मारी गयी हैं, जो मारी जा रही हैं या जिनकी बारी अभी बाकी है उनकी दिवंगत, भटकती आत्माएँ इनके स्वरों से परिचित होंगी।
वैसे भी इस देश की काग़ज़ी इमारतों में न्याय भले ही दुबक कर बैठता हो लेकिन दैविक न्याय तो अपना दायरा पूरा करता ही है। राजा भूल जाते हैं जब भी कोई विनाश आता है, उसकी तह में होती है-किसी रानी की आह!
यह संग्रह उन सभी राजाओं के नाम जिन्होंने रात के घुप्प अँधेरे में सच की चाबी को कहीं छिपा दिया है और साथ ही उन रानियों के नाम जो बादलों के सोखे गये सुख के अक्स को अपने सीने में दुबकाये बैठी हैं। वैसे चाबी जहाँ भी रहे, क़िले के बाहर से गुज़रते हुए अक्सर एक हूक सुनाई देती है। बाहर वाले शायद यह नहीं जानते कि क़िले के अन्दर बैठी रानी ऐलान कर चुकी है- थी... हूँ... रहूँगी...।
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