ओडिया की जानीमानी कवयित्री प्रतिभा शतपथी को लम्बे समय से पढ़ता रहा हूँ और अधिकतर हिन्दी अनुवाद में। पर उनकी इस नयी कृति 'तुम्हारे लिए हर बार...' को देखते हुए सबसे पहले मेरा ध्यान उनके आरम्भिक वक्तव्य पर गया और इस कथन पर खासतौर से मैं रुका- “ईश्वर से टक्कर लेने के लिए मैं लिखती हूँ, साथ-साथ कठोर दंड स्वीकार करने के लिए भी लिखती हूँ। सम्भवतः मेरे लेखन के ये दोनों ही कारण हैं।"
यह एक साहसपूर्ण कथन है और शायद इस कवयित्री के सृजन - कर्म को समझने की कुंजी भी है । इस संग्रह में ऐसी अनेक कविताएँ हैं जिन्हें बार-बार पढ़ा जा सकता है और मैं यह निःसंकोच कह सकता हूँ कि इस कृति के अनुवादक डॉ. राजेन्द्र प्रसाद मिश्र ने इनको हिन्दी में भाषान्तरित करते समय काव्यानुवाद के अपने लम्बे अनुभव का पूरा उपयोग किया है। इसीलिए ये कविताएँ कई बार अपने हिन्दी अवतार में इतनी सहज हैं कि मौलिक की तरह लगती हैं।
संग्रह की 'आँसू' शीर्षक कविता में ये पंक्तियाँ इस कवयित्री के काव्य-स्वभाव को व्यंजित करने के लिए अच्छा उदाहरण बन सकती हैं-
कभी मोती तो कभी
बारिश की बूँद
कभी दुलदुल ओस
कभी डोलता फन साँप का
कभी खामोशी तो कभी चीत्कार
कभी काँच तो कभी इस्पात
वह गढ़ सकती है
मिटा सकती है।
- प्रो. केदारनाथ सिंह
17 अगस्त, 2014
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