राजस्थान का इतिहास बिना राजस्थानी भाषा के अध्ययन के प्रामाणिक रूप से प्रस्तुत नहीं किया जा सकता। राजस्थानी भाषा के हज़ारों दोहे हैं जिन्हें समझे बिना राजस्थान के इतिहास का अध्ययन हो ही नहीं सकता। इसी तरह राजस्थानी साहित्य का अध्ययन भी इतिहास के अध्ययन बिना अधूरा है। यदि किसी लेखक को इतिहास का सम्यक ज्ञान नहीं है तो वह राजस्थानी भाषा में किसी ग्रन्थ का अध्ययन नहीं कर सकता । अतः इतिहास, भाषा और साहित्य का पूर्ण अध्ययन करके ही राजस्थान के इतिहास और साहित्य का प्रामाणिक अध्ययन प्रस्तुत किया जा सकता है।
इस ग्रन्थ में राजस्थान के इतिहास और साहित्य का अध्ययन इसी दृष्टि को समक्ष रखकर प्रस्तुत करने का प्रयास किया है और इस आधार पर मीराँबाई के जीवन की घटनाओं को प्रमाण-पुष्ट करके प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। यह एक प्रयास है जिसके माध्यम से मीराँबाई के जीवनवृत्त से सम्बन्धित अनेक जिज्ञासाओं को शान्त किया जा सकेगा।
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मीराँबाई एक ओर पुनीत भक्त आत्मा है तो दूसरी ओर लोकनिधि । इस लोक में रहकर ही आदर्श भक्ति का प्रस्तुतीकरण करने वाली मीराँ को लोक से परे रखकर नहीं समझा जा सकता । उसकी अनुभूति और अभिव्यक्ति लौकिक है। यही कारण है कि एक ओर उसके पदों में मीराँ युगीन राजनैतिक, धार्मिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक परिस्थितियों, लोकप्रचलित धारणाओं, लोक-विश्वासों तथा मान्यताओं का दिग्दर्शन है तो दूसरी ओर लोकभाषा और उसकी लौकिक शब्दावली भी अपने सहज रूप में है। तत्कालीन आवागमन एवं मनोरंजन के साधन, रीति-रिवाज, खान-पान, वेशभूषा, यहाँ तक कि लोक एवं व्यक्ति-चिन्तन तथा लोक और व्यक्तिपरक शकुन एवं आस्थाओं का स्वाभाविक चित्रण मीराँ के पदों में हुआ है। संक्षिप्त रूप से यही कहा जा सकता है कि मीराँ के पदों में मीराँ युग की भव्य सांस्कृतिक झाँकी विद्यमान है। मीराँ के पदों के एक-एक शब्द से मीराँ का युग मुखरित होता है। यह सच भी है कि जिस परिवार तथा समाज में मीराँ पल्लवित हुई, जिन परिस्थितियों ने उसके जीवन-निर्माण में योग दिया, उन्हें वह कैसे विस्मृत करती क्योंकि मीराँ भी तो अपने युग और परिस्थितियों की ही देन थी। यदि हम मीराँ के पदों का सामाजिक एवं सांस्कृतिक अध्ययन करें तो हमें लगेगा जैसे उनमें मीराँ का युग साकार हो उठा है।
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