वीणा का भारतीय शास्त्रीय संगीत में अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान है। वीणा की परम्परा आज लुप्त भले ही न हुई हो किन्तु दुर्भाग्य से इसका प्रचलन कम अवश्य ही हुआ है। जब हम वीणा की बात करते हैं तो अनेक सवाल और चिन्ताएँ उभरती हैं मसलन वीणा की उत्पत्ति कैसे और कहाँ हुई, उसकी प्राचीन और वर्तमान परम्परा क्या है, वीणा का वर्तमान और भविष्य क्या है? वे कौन लोग हैं जो आज वीणा की परम्परा को जीवित रखे हुए हैं, आदि-आदि।
प्राचीन काल से मध्य काल तक जो वीणाएँ चलन में रही हैं, उनमें आडम्बर, अनालम्बी, अमृत कुण्डली, अलाबु, आलापिनी, एकतन्त्री, एकतारा, कच्छपी, काण्ड, कात्यायनी, कलावती, किन्नरी, कुब्जिका, कूर्मी, गोटूवाद्य या महानाटक, चित्रा, जया तथा ज्येष्ठ, बुम्बरु वीणा, त्रितन्त्री, दण्डी, दक्षिणात्य या तंजौरी, नकुली, निःशंक, परिवादिनी, पिनाकी, प्रभावती, ब्रह्म, महती, मत्तकोकिला, यन्त्र, रबाब, रावणहस्त, रुद्र वीणा, विपंची, सारंगी, सितार और स्वरमण्डल शामिल हैं।
वैदिक काल की प्रमुख वीणा बाण तथा गौण वीणाओं में ताल्लुक, काण्ड, पिच्छौरा, अलाबु ईसा के एक हज़ार वर्ष पूर्व से भरत काल की प्रमुख वीणाओं में विपंची और चित्रा तथा गौण वीणाओं में घोषिका, महती, नकुली आदिः मतंग के काल से शारंगदेव के काल तक प्रमुख वीणाओं में किन्नरी, एकतन्त्री, महती और गौण वीणाओं में नकुली, तन्त्री, सप्ततन्त्री, संगीत रत्नाकर के काल से 19 वीं शताब्दी के मध्य तक प्रमुख वीणाओं में रुद्रवीणा, रबाब, स्वरमण्डल और गौण वीणाओं में त्रितन्त्री, पिनाकी, रावण-शास्त्र तथा सारंगी और 19 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से अब तक सितार (त्रितन्त्री), सरोद, सारंगी, तम्बूरा, प्रमुख वीणाओं में तथा स्वर बहार, इसराज, तथा सुर - सिंगार गौण वीणाओं में शामिल हैं।
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