सच में, संगीत किसी एक का नहीं होता, एक के लिए नहीं होता। मैं स्वयं को सौभाग्यशाली मानती हूँ कि इतने महान और बड़े कलाकारों के साथ एक ही जीवन-काल में परिचय और उनके साथ मधुर सम्बन्ध बनाने का अवसर मुझे मिला है। उनके स्वरों का स्पर्श मुझ जैसी व्यक्ति को अपने ही ऊपर गर्व करने का लालच देता है। ऐसे में, जब वर्षों के जुड़ाव में उन सभी महान कलाकारों के साथ किया गया सुर- संवाद, मैं काग़ज़ पर उतारने बैठी तो वह कैसा रूप लेगा, मुझे पता न था। उसका कारण था कि यह बातचीत, यह संवाद कभी इस भाव से नहीं किया गया था कि इसे पुस्तक रूप देना है, बस मैं तो कुछ क्षणों को सँजोना चाहती थी, मन की सुगन्ध में उतारना चाहती थी। जैसे इन कलाकारों ने, विभूतियों ने, अपने संगीत को सबके साथ बाँटा है, तो मैं भी अपने सुर-संवाद, अपने अनुभव को, आपके साथ इस पुस्तक के माध्यम से बाँटने का प्रयास कर रही हूँ।
प्रस्तुत पुस्तक 'सात सुरों के बीच' में मैंने कलाकारों की बानगी को, उनकी अभिव्यक्ति को उन्हीं की शैली, उन्हीं के शब्दों में रखने का प्रयास किया है। केवल उनका खाका मेरा है। 1. आप उनके स्वरों के साथ-साथ उनके शब्दों की सुगन्ध को भी वैसा ही महसूस कर सकें, जैसा मैंने किया था, यह इच्छा रही और इस सारीप्रक्रिया में 15 वर्ष लग गये। ये संवाद कोई एक बार का या एक स्थान का नहीं है। इसमें कई वसन्त आये और चले गये, ऋतुएँ बदल गयीं। लेकिन कभी तो इसे समेटना था। इस समेटने में कुछ विभूतियाँ ब्रह्मलीन हो गयीं। उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ जिनके साथ यह सुर-संवाद आने वाली पीढ़ियों के लिए भी महत्त्वपूर्ण होगा, पं. किशन महाराज, उस्ताद विलायत खाँ साहब और पं. भीमसेन जोशी जिनकी चर्चा इनमें अनेक बार हुई है, इनमें सम्मिलित हैं।
प्रस्तुत पुस्तक में प्रमुख रूप से बिस्मिल्लाह खाँ साहब, पं. किशन महाराज, पं. जसराज, मंगलमपल्ली डॉ. बालमुरली कृष्ण, पं. शिवकुमार शर्मा, पं. बिरजू महाराज एवं पं. हरिप्रसाद चौरसिया जी के साथ किया गया सुर-संवाद शामिल है, किन्तु देश के अन्य प्रमुख कलाकारों की झलक भी संवाद के माध्यम से पुस्तक में बिखरी मिलेगी।
आशा करती हूँ कि मेरे प्रस्तुत प्रयास को आप सहृदय स्वीकार करेंगे।
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