विजयराजमल्लिका मलयालम की एक ट्रांसजेंडर कवयित्री हैं। ज़ाहिर सी बात है, जब वे एक ट्रांसजेंडर हैं तो उनकी कविता की दुनिया में ऐसा बहुत कुछ जो अनदेखा, अनजाना और अनछुआ भी। इसलिए उनकी कविताएँ मलयालम साहित्य को समृद्ध तो करती ही हैं, भारतीय साहित्य को भी समृद्ध करती हैं।
मल्लिका जी की कविताएँ हमारे ही समय, समाज और इस पृथ्वी की कविताएँ हैं लेकिन अपने कंटेंट और ट्रीटमेंट के स्तर पर जिस तरह वे स्त्री-पुरुष के लोक में अपने विषमलिंगी लोक को रचती हैं, वह दृष्टि, संवेदना और प्रतिरोध के निमित्त भीतर कहीं ठहर-सा जाता है ताकि कहन में गहन को सम्भृत हो जान सकें ।
ट्रांसजेंडर उसी गर्भ से पैदा होते हैं जिससे अन्य, लेकिन पितृसत्तात्मक समाज में वही माँ जब एक दिन शर्म, भय के कारण फ़र्क़ और घृणा करने लगे और बच्चा इस सवाल का उत्तर जानना चाहे कि 'बेटा नहीं, मैं बेटी हूँ तब भी क्या तुम मुझे भिन्नलिंगी बुलाओगी?' जब कि 'तुम भी तो माँ हो!'; तब उसकी वेदना की थाह लगाना मुश्किल ! बावजूद इसके कवयित्री-जब किसी को पता नहीं था कि वह नर या मादा नहीं कुछ और हैं, और एक दिन घर से विलग होना पड़ा-अपने बचपन के उन सुनहरे दिनों को याद करती हैं जब माँ 'लाल' सम्बोधित कर खाने को बुलाती थी; उस बुलावे को कभी नहीं बिसरतीं क्योंकि 'पिघलती मिठास की यादें सदा बसी रहती हैं।' तभी तो वे अपने जैसे उपेक्षितों के लिए उमड़ पड़ती हैं कि 'नींद की आहट में/मेरे अन्दर एक मातृहृदय कराहता है' और लिखती हैं एक लोरी - 'लड़का नहीं तू ना लड़की ...तुझे सीने से लगाकर/तेरे माथे को चूमूँ मैं ... अभिशाप नहीं हो, पाप नहीं हो तुम, प्यारे...रा रा री री रू रा रा री रू ।' वे लोरी लिखते इस तरह गर्व से भर जाती हैं कि मान्यताओं के मुँह पर तमाचा मारते कहती हैं- 'मैं अपने बच्चों को बृहन्नला या/शिखण्डिनी/नाम दूँगी/ताकि उनके द्वारा/भाषा में हुए घातक घाव भर जायें।'
ऐसा नहीं है कि ट्रांसजेंडर होना निर्बल होना होता है। वे अपनी लड़ाई लड़ना और जीतना जानते हैं, इसी समाज में जहाँ लोग तीसरे लिंग की जीवन-छतरी में विविधताओं को नहीं देखते, संख्याओं में लिंग को देखते हैं यानी अंकों से आँकते हैं मनुष्यों को और नज़रों से ही नहीं, भाषा के ज़रिये भी चोट पहुँचाते हैं- 'सीने में चाकू मारने से भी ज़्यादा पीड़ा होती है/बातों से हृदय पर आघात करने से ।' जब कि इन्हीं लोगों में से कुछ उन्हें अपनी वासना का शिकार बनाने से नहीं चूकते। रेलवे कूपे में हाथ फैलाने वाले बस हिंजड़ा हैं, जिन्हें कई परिचित पहचानने से इनकार कर देते हैं। बस में महिला सीट पर बैठने की ज़िद करें तो बैठ नहीं सकते, भले चिल्लाते रहें- 'मैं औरत हूँ । कुछ तो ऐसे जो उनके लाड़, उनकी चुप्पी को एकतरफ़ा समझ लेते हैं और न मानने पर चेहरे पर तेज़ाब भी फेंक देते हैं। कई ऐसे जो 'अस्तित्व का दिशाबोध/गले में ठोंकते हैं मछली के सिर के काँटे की तरह ।' आख़िर यह कैसा न्याय है? कवयित्री पूछती हैं- 'तेरे अनुयायी तेरी वकालत करेंगे/मेरी वकालत करेगी यह प्रकृति ...क्या मनुष्य-जन्म सिर्फ़ स्त्री-पुरुष के रूप में हुआ था? हे करुणानिधान, बता/कि मौन से बड़ा कोई पाप है?'
चूँकि ट्रांसजेंडर भी मनुष्य हैं, और मनुष्य हैं तो प्रेमविहीन कैसे हो सकते हैं! इस संग्रह में प्रेम पर भी छोह-विछोह के रंगों को समेटे कई कविताएँ हैं जो उनके एक ऐसे अज्ञात प्रदेश में ले जाती हैं जो अज्ञात तो होता है लेकिन अबूझ नहीं। इसकी बानगी इन पंक्तियों में देखा जा सकता है- 'निःशब्द प्रणय/अक्सर / है होता सीने में आग-सा/वह/ जल रहा होता है फैल रहा होता है सुलग रहा होता है धुआँ-सा/लेकिन किसी को पता नहीं होता।'; 'अनंकुरित थनों वाले उस सीने की घुड़दौड़ देख हर बार मन में जगता है फूल बनने का एहसास'; 'उसने मुझे पसन्द किया/और मैंने उसे ... लेकिन यह रिश्ता नहीं चलेगा/कि आख़िर बिना योनिवाली महिला की शादी कैसी!'
कहने की आवश्यकता नहीं कि विजयराजमल्लिका का यह कविता-संग्रह हिन्दी पाठकों के लिए एक उपलब्धि तो है ही, अविस्मरणीय भी होगा।
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