हरित कविता - पिछले साल 31 अक्तूबर से लेकर 12 नवम्बर 2021 तक स्कॉटलैंड के ग्लास्को में विश्वभर में होने वाले पर्यावरणीय परिवर्तन पर विचार-विमर्श करने हेतु शिखर सम्मेलन सम्पन्न हुआ था। इसमें विश्वभर के एक सौ बीस से अधिक राष्ट्रों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया था। सम्मेलन के सार के रूप में एक नारा वहाँ बुलन्द था, वह यह था कि 'अब नहीं तो कभी नहीं'; अर्थात् वर्तमान काल में यदि हम प्रकृति को बचा नहीं पायेंगे तो फिर कभी नहीं बचा पायेंगे। इसका तात्पर्य यह निकलता है कि पर्यावरण को बचाने की चिन्ता विश्वभर में छायी हुई है। आज का ज़माना यह जान चुका है कि बिना प्रकृति के इस भूतल में मानव का मात्र नहीं, प्रकृति के सम्पूर्ण जीव-रूपों का अतिजीवन आगे निस्सन्देह असम्भव है। प्रकृति से एकदम अलग होकर मानव के अस्तित्व की परिकल्पना नहीं की जा सकती है, क्योंकि वह स्वयं प्रकृति का दूसरा रूप है। प्रदूषित, संसाधनहीन, निर्जीव प्रकृति में मानव का चैन से रहना सिर्फ़ एक सपना है। जयप्रकाश कर्दम जैसे समकालीन कवि इस चिन्ता को हमारे सामने रखते हुए कहते हैं कि 'मृत्यु सारे ग्रहों में है, पर जीवन की रंगमयता केवल इस भूमि में मात्र बरकरार है।' अतएव समकालीन संकट की घड़ी में उभरनेवाला ज्वलन्त सवाल यह है कि हम मृत्यु का वरण करें या जीवन का। इस बात को इस भाँति भी व्यक्त किया जा सकता है कि आगामी पीढ़ियाँ सुख-शान्ति से रहें या न रहें। इससे लगता है कि पर्यावरणीय साहित्य का मूलभाव सबको निगलने के लिए तत्पर खड़ी मृत्यु का नितान्त निरोध-विरोध है।
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