रोमन खंडहरों या पुराने मुस्लिम मकबरों के बीच घूमते हुए एक अजीब गहरी उदासी घिर आती है जैसे कोई हिचकी, कोई साँस, कोई चीख़ इनके बीच फँसी रह गयी हो...जो न अतीत से छुटकारा पा सकती हो, न वर्तमान में जज़्ब हो पाती हो... किन्तु यह उदासी उनके लिए नहीं हैं, जो एक ज़माने में जीवित थे और अब नहीं हैं... वह बहुत कुछ अपने लिए है, जो एक दिन खंडहरों को देखने के लिए नहीं बचेंगे... पुराने स्मारक और खँडहर हमें उस मृत्यु का बोध कराते हैं, जो हम अपने भीतर लेकर चलते हैं, बहता पानी उस जीवन का बोध कराता है, जो मृत्यु के बावजूद वर्तमान है, गतिशील है, अन्तहीन है....
एक महान कलाकृति मनुष्य को नहीं बदलती, न उसके संसार को बदलती है, वह सिर्फ उस रिश्ते को बदलती है, जो अब तक मनुष्य अपने संसार से बनाता आया था; लेकिन एक बार रिश्ता बदल जाने के बाद न तो मनुष्य ही वैसा मनुष्य रह पाता है जैसा वह कलाकृति के सम्पर्क में आने से पहले था, न उसका संसार वैसा रह पाता है जो कलाकृति के अनुभव के बाद दिखाई देता है... इसलिए महत्त्वपूर्ण मेरे लिए अनुभव नहीं, स्मृति का वह झरोखा है जिसमें से गुज़रकर वे कहानियाँ बनते हैं... लेखक चाहे अपने अनुभव में अकेला हो, अपनी स्मृति में नहीं, जो अनुभव को 'बुलाती' है, उसे रचना में बदलती है-उसकी सामूहिकता में हर कलाकार दूसरों से जुड़ा है....
- निर्मल वर्मा
शब्द और स्मृति में निर्मल वर्मा ने स्पष्ट कर दिया था कि प्रश्न 'भारतीय अनुभव' का नहीं, भारतीय 'स्मृति' का है और 'स्मृति' व्यक्ति और अतीत के बीच एक विशिष्ट जुड़ाव, एक सांस्कृतिक सम्बन्ध से जन्म लेती है। अतः स्मृति का प्रश्न इतिहास का नहीं, 'संस्कृति का प्रश्न' है।
निर्मल वर्मा (Nirmal Verma )
निर्मल वर्मा (1929-2005) भारतीय मनीषा की उस उज्ज्वल परम्परा के प्रतीक-पुरुष हैं, जिनके जीवन में कर्म, चिन्तन और आस्था के बीच कोई फाँक नहीं रह जाती। कला का मर्म जीवन का सत्य बन जाता है और आस्था की चुनौत