कला सिखाती नहीं, 'जगाती' है। क्योंकि उसके पास 'परम सत्य' की ऐसी कोई कसौटी नहीं, जिसके आधार पर वह गलत और सही, नैतिक और अनैतिक के बीच भेद करने का दावा कर सके... तब क्या कला नैतिकता से परे है? हाँ, उतना ही परे जितना मुनष्य का जीवन व्यवस्था से परे । यहीं कला की 'नैतिकता' शुरू होती है..... कोई अनुभव झूठा नहीं, क्योंकि हर अनुभव अद्वितीय है.... झूठ तब उत्पन्न होता है, जब हम किसी 'मर्यादा' को बचाने के लिए अपने अनुभव को झुठलाने लगते हैं। सीता के अनुभव के सामने राम की मर्यादा कितनी पंगु और प्राणहीन जान पड़ती है... इसलिए नहीं कि उस मर्यादा में कोई खोट या झूठ है, बल्कि इसलिए कि राम अपनी मर्यादा बचाने के लिए अपनी चेतना को झुठलाने लगते हैं...
जब हम कोई महान उपन्यास या कविता पढ़ते हैं, किसी संगीत - रचना को सुनते हैं, किसी मूर्ति या पेंटिंग को देखते हैं तो वह उन सब अनुभवों की याद दिलाती है, जो न सिर्फ़ हमें दूसरी कलाकृतियों से प्राप्त हुए हैं, बल्कि जो कला के बाहर हमारे समूचे अनुभव-संसार को झिंझोड़ जाता है ... वह एक टूरिस्ट का निष्क्रिय अनुभव नहीं, जिसे वह अपनी नोटबुक में दर्ज करता है... वह हमें विवश करता है कि उस कलाकृति के आलोक में अपने समस्त अनुभव-सत्यों की मर्यादा का पुनर्मूल्यांकन कर सकें....
- निर्मल वर्मा
निर्मल वर्मा के निबन्धों की सार्थकता इस बात में है कि वे सत्य को पाने की सम्भावनाओं के नष्ट होने के कारणों का विश्लेषण करते हुए उन्हें पुनः मूर्त करने के लिए हमें प्रेरित करते हैं। निर्मल वर्मा लिखते हैं कि समय की उस फुसफुसाहट को हम अक्सर अनसुनी कर देते हैं, जिसमें वह अपनी हिचकिचाहट और संशय को अभिव्यक्त करता है क्योंकि वह फुसफुसाहट इतिहास के जयघोष में डूब जाती है-निर्मल वर्मा के ये निबन्ध इतिहास के जयघोष के बरअक्स समय की इस फुसफुसाहट को सुनने की कोशिश हैं।
- नन्दकिशोर आचार्य
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