रामकथा की तरह भारत की हर भाषा में धर्मवीर भारती, प्रतिभा बासु, बुद्धदेव वासु, इरावती कर्वे, दुर्गा भागवत से लेकर काशीनाथ सिंह तक रचनाकारों ने महाभारत को अपने समय सन्दर्भों में बाँचा है। एक कवि को काव्यात्मक धरातल पर महिमान्वित क्षत्रिय कुल की यह भीतरी कथाएँ कृष्ण वर्ण से आच्छन्न नज़र आती हैं। और उन कई विलक्षण महिलाओं को एक स्त्री की दृष्टि से टटोलने वाली 'निमित्त नहीं!!" संकलन की कविताएँ स्त्री-पुरुष से इतर कई-कई शाश्वत द्वैत उघाड़ती चली हैं: श्याम और उजले वर्ण का। सवर्ण अवर्ण का द्वैत, वैध अवैध और आर्य अनार्य का संघात । और सबसे ऊपर धर्म के नाम पर वह अधर्म युद्ध जिसकी अन्तिम विडम्बना महाकाव्य को व्यास के दिये मूलनाम 'जय' में निहित है।
सुमन केशरी की कविताओं में महाभारत का इतिहास भरतवंश का उतना नहीं, जितना कि सत्यवती- द्वैपायन वंश का इतिहास है जिसके तमाम पुरुष पात्रों को एक गृहयुद्ध की विभीषिका ने लौह पुतलों में बदल डाला है। अपने निजी नाम से वंचिता पुरुषों के नाम से अभिहित, कृष्ण की इकलौती सखी द्रौपदी, पाण्डवों की अभिशप्त माता कुन्ती, उसी की तरह वासना और छल के अन्धकारों से जूझती गान्धारी और चिता में पति के साथ जल चुकी रानी माद्री के आत्मालाप पुरुष प्रधान समाज में स्त्री होने की कालातीत विडम्बनाओं का आईना हैं। अपेक्षया कम लक्षित पात्र जैसे भीष्म की मोह अमोह की बड़वाग्नि में जलती माता गंगा, सत्यवती, शिखंडी, सुभद्रा, वनवासिनी हिडिम्बा, भानुमती, शकुन्तला, सावित्री और उत्तरा की परछाइयाँ भी यहाँ प्रेतात्माओं की तरह भटकती आज भी देश भर में अपने दुःखों के दाने बीनती फटकती नज़र आती हैं।
- मृणाल पाण्डे
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