Barbala

Paperback
Hindi
9789350001325
2nd
2014
220
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जैसे औरत पैदा नहीं होती - बनाई जाती है, वैसे ही कोई लड़की बारबाला होती नहीं है, बनाई जाती है। वह परिस्थितियों द्वारा बुरी तरह धुन दिए जाने के बाद ही इस विकल्प को चुनती है और यथार्थ से सामना होने के बाद पाती है कि वास्तविकता उससे कहीं ज्यादा बीहड़ है जितने की उसने उम्मीद की थी। यह दुख भरी आत्मकथा मुंबई की एक ऐसी ही बारबाला की है, जिसे बचपन से ही यौन शोषण का शिकार होना पड़ा था। वैवाहिक जीवन उसके लिए और ज्यादा आतंककारी साबित हुआ। जब उसने जीविका की तलाश में बारबालाओं की ऊपर से रंगीन, पर भीतर से सड़ी हुई और बदबूदार दुनिया में प्रवेश किया, तो वहाँ उसे जो हैरतअंगेज अनुभव हुए, उनका बयान करते हुए आत्मकथा लेखक वैशाली हळदणकर की उँगलियाँ काँप-काँप उठती हैं। यह सिर्फ एक अकेली बारवाला की आपबीती नहीं है, उन हजारों अभागी लड़कियों की दास्तान है जिन्हें रोजी-रोटी के लिए शोषण, दमन और यातना का निरंतर शिकार होना पड़ता है। अपने स्वाभिमान और स्वायत्तता को तरह-तरह से कुचला जाता देख कर वे कभी शराब की ओर मुड़ती हैं तो कभी ड्रग्स की ओर । पुस्तक की भूमिका में महाराष्ट्र की सामाजिक कार्यकर्ता तथा बारबालाओं की यूनियन बनानेवाली वर्षा काळे ने इस उद्योग का परत-दर-परत विश्लेषण किया है, जिससे बारबालाओं की स्थिति को एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखने की रोशनी मिलती है।

पद्मजा घोरपड़े (Padmaja Ghorpade )

एसोसिएट प्रोफ़ेसर, हिन्दी विभागाध्यक्ष एवं भूतपूर्व प्रभारी प्राचार्य, स.प. महाविद्यालय, पुणे।प्रकाशित पुस्तकें : कुल 38; समीक्षा, कविता, कहानी, पत्रकारिता, जीवनी तथा अनुवाद लेखन हेतु राष्ट्र

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वैशाली हळदणकर (Vaishali Haldankar)

 जन्म 1 जुलाई 1967 को हुआ। परिवार का वातावरण संगीत की साधना से सराबोर था, पर अभाव और कंगाली भी कम नहीं थी। बीस वर्ष की उम्र में वे बारबाला बनीं और लगभग सत्तरह साल तक मुंबई के करीब डेढ़ सौ बारों में क

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