मस्नवी 'जहर-ए-इश्क' का कैफ़ी आज़मी साहब द्वारा तैयार किया गया ड्रामाई रूप हिंदी में पहली बार प्रकाशित हो रहा है। इस कृति के माध्यम से हिंदी पाठक उनके व्यक्तित्व के एक नये आयाम से परिचित हो सकेंगे।
मस्नवी 'ज़हर-ए-इश्क' नवाब मिर्ज़ा शौक़ लखनवी की तीन अमर मस्नवियों में से एक है। प्रेम में विछोह का ऐसा मर्मांतक वर्णन विरल है। इस पारंपरिक विषय पर उर्दू में अनेक मस्नवियाँ लिखी गई हैं लेकिन ऐसी भावप्रवणता और हृदयग्राह्यता शायद ही कहीं और मौजूद हो। इसकी संवेदना में युवा हृदय की अभिलाषाओं का ज्वार है, अधूरे सपनों का विलाप है और प्रेम की ली को आँधियों के कहर से बचा पाने की विकलता है। अपनी परिणति में यह एक दुखांत रचना है। प्रिय-मिलन से वंचित नायिका की मृत्यु हमारे हृदय को विदीर्ण कर देती है।
बाज़ आलोचकों की राय है कि यह मस्नवी नवाब मिर्ज़ा 'शौक' की आपबीती है। इसके नायक वे खुद हैं। उन्होंने अपनी जवानी के असफल प्रेम पर तीन मस्नवियाँ लिखीं-फ़रेब-ए-इश्क, बहार-ए-इश्क और ज़हर-ए-इश्क। तीनों का कथ्य एक है। तुलनात्मक दृष्टि से देखा जाए तो 'ज़हर-ए-इश्क' में साहित्यिक उत्कर्ष कहीं ज़्यादा है।
उर्दू में मस्नवी विधा की समृद्ध परंपरा रही है। इसमें एक ही विषय या कहानी का निर्वाह किया जाता है। इसे प्रबंध काव्य का ही एक रूप समझिए। 'शौक' की मस्नवियों पर मीर दर्द के छोटे भाई ख़्वाजा मीर असर देहलवी और मोमिन की मस्नवियों का प्रभाव देखा जा सकता है। लेकिन 'शौक' अपने विशिष्ट लखनवी रंग और वर्ण्य विषय से अंतरंगता की बिना पर अपनी मस्नवियों को बेमिसाल बना गए हैं।
मिर्ज़ा ‘शौक’, नवाब वाजिद अली शाह के ज़माने के मशहूर शाइर थे। मस्नवी 'ज़हर-ए-इश्क' की रचना 1860 ई. में हुई। इस मस्नवी का एक अन्य पाठ भी बनता है जिसमें हम उस समय के लखनऊ की सामाजिक और सांस्कृतिक परिस्थिति से रू-ब-रू हो सकते हैं। ‘शौक’ का उद्देश्य समाज-सुधार नहीं था, न ही उनके
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