अन्तर्व्याप्त यन्त्रणा और प्रतिरोध की विलक्षण कविताएँ जब अकस्मात् कुछ दशकों से लगातार किसी स्वीकृत परम्परा की तरह स्थिर, एक ही भाषा के अलग-अलग लहजों या विभिन्न संरचनात्मक अभिव्यंजनाओं में विन्यस्त, किसी परस्पर संलाप में आदतन व्यस्त कविताओं के सामने एक गम्भीर, बड़ा और उकताया हुआ प्रश्न उठ खड़ा होता है कि 'अब इसके आगे क्या?' तब इक्कीसवीं सदी के इन शुरुआती दो दशकों की युवा कवि पीढ़ी के जिन कुछ अद्वितीय, मौलिक और प्रामाणिक कवि प्रतिभाओं ने जैसा सशक्त और दूरगामी उत्तर दिया है, उनमें वीरू सोनकर की कविताएँ शिखर पर दिखाई देती हैं। ऐसी काव्यात्मक उत्कर्ष की कविताएँ, जहाँ एकान्त अपने शब्द ख़ुद चुनता है, देह और देश का व्याकरण एक होता है, मुक्तिबोध जिसे 'आत्मचेतस' और 'विश्वचेतस' कहते हुए विभक्त करते थे, वह किसी नश्वरता की कौंध में अविभाज्य हो जाता है और जिस कविता के पाठ के गहरे साक्षात्कार या काव्य-अनुभव से गुज़रते हुए अचानक, किसी भी बिन्दु पर वही सवाल चकित करता सामने आ खड़ा होता है - 'अब इसके बाद क्या?' किसी ज़माने में यही प्रश्न अंग्रेज़ी के अप्रतिम कवि एजरा पाउंड के सामने विक्टोरियन युग के विद्रोही कवि स्विन बर्न की कविताओं को पढ़ते हुए और फिर बाद में स्वयं एजरा पाउंड की कविताओं को पढ़ते हुए टी.एस. इलियट के सामने उपस्थित हुआ था। वीरू सोनकर की कविताओं के बारे में बबना बिना किसी संशय के कहा जा सकता है कि ये कविताएँ अपने आलोचनात्मक विश्लेषण के लिए नये 'कैनन्स' या प्रतिमानों की अनिवार्य माँग करती हैं। ये पिछले कुछ दशकों की कविता के नैरन्तैर्य और अकादमिक आलोचना की जड़ता को एक सिरे से, एक साथ निरस्त भी करती हैं और उनकी सम्भावनाओं के लिए नयी ज़मीन, परिस्थिति और सन्दर्भ भी तैयार करती हैं। ये कविताएँ अपने प्रकट स्थापत्य और आन्तरिक विन्यास की समूची संरचना में अन्तर्व्याप्त पीड़ा और प्रतिरोध को, बेचैन और सचेत करती, वास्तविक अर्थों में विलक्षण कविताएँ हैं। यन्त्रणा का गहरा संवेगात्मक आत्मबोध और उससे विमुक्ति की प्रामाणिक, जागृत, व्यग्र और सचेष्ट छटपटाहट, जिसे अतीत की मुक्ति और प्रतिरोध की पूर्ववर्ती कविताओं से अलग और स्पष्ट चिह्नित किया जा सकता है। ये कविताएँ हमारे दिक् और काल की उस उपत्यका की ओर ले जाती हैं जहाँ हर कुआँ पृथ्वी की आँख है और नदी पृथ्वी की पीठ पर सिल दी गयी शिराएँ, जहाँ देह और चेतना एक साथ प्रकृति, राजनीति, भाषा और भूगोल में विलीन होकर स्तब्ध और विचलित करता हुआ नया व्याकरण बनाती हैं। किसी भी सच्चे रचनाकार की 'मातृभाषा' का सबसे 'ठेठ', 'चालाक' और 'मौलिक' मुहावरा, लेकिन इस उत्कर्ष के बावजूद पूरी व्याकुलता के साथ अपने लिए किन्हीं नये 'शब्दों' की माँग करता हुआ, जहां एक-दूसरे का हाथ थामे हुए इस समय और यथार्थ को व्यक्त करने वाला कोई एक सक्षम ‘वाक्य' कम-से-कम कविता में सम्भव हो सकता है। वीरू सोनकर के इस संग्रह में संकलित कविताओं का दायरा आज के जीवन के लगभग सभी आयामों और छोरों तक फैला हुआ है। ठीक इसी समय में जिये जा रहे जीवन की दैनंदिनी। अविस्मरणीय और कीमती रोज़नामचा। एक युवा कवि की ऐसी डायरी जिसे पढ़ते हुए वही प्रश्न सामने आ खड़ा होता है कि 'अब इसके बाद क्या?' वही प्रश्न जो मुक्तिबोध को पढ़ते हुए शमशेर और शमशेर को पढ़ते हुए रघुवीर सहाय के सामने उपस्थित हो गया था। या किर सातवें दशक में धूमिल की 'पटकथा' और उनकी अन्य कविताओं को पढ़ते हुए मेरे जैसे लोगों के सामने प्रकट हुआ था। 'मेरी राशि का अधिपति एक साँड है' की कविताएँ नयी सदी में उभरने वाली विशिष्ट अस्मिता की अत्यन्त प्रामाणिक, सिद्ध और मौलिक ‘पहचान' हैं। समकालीन हिन्दी कविता के पन्ने पर एक सशक्त, दीर्घकालिक, प्रामाणिक हस्ताक्षर। पूरा विश्वास है कि इन कविताओं से हिन्दी कविता की महत्त्वपूर्ण परम्परा पुनसृजित और समृद्ध होगी। उसे एक बहु-प्रतीक्षित कवि इस संग्रह के साथ हासिल होगा। - उदय प्रकाश
Log In To Add/edit Rating
You Have To Buy The Product To Give A Review