अनुराधा की कविताएं अर्द्धनिमीलित आंखों की तरह धीरे-धीरे खुलती है। भीतर का अर्जित प्रकाश बाहर की चकाचौंध से सहज तादात्म्य नहीं बना पा रहा हो तो ऑंखें या कविताएं धीरे-धीरे ही खुलती हैं। आपबीती और जगवीती की विडम्बना कवि को अपने भीतर के गहनतम एकान्त में डुबकी लगवा देती है, उसके बाद जब कवि बाहर आती है, तब गहरे पानियों में समाधिस्थ ही बैठे रह गये नानकदेव की तरह 'कोई और होकर। दुबारा यहाँ लीटना, जहाँ से धक्के खाकर गये थे, इतना आसान नहीं होता, फिर भी लीटना तो पड़ता है-बस दृष्टि बदल जाती है!
अनुराधा के यहाँ स्टेशन के वेटिंग रूम में गुड़ी-मुड़ी होकर सदियों से सोयी स्त्री ऐसी ही आत्मस्थ स्त्री है- 'थोड़ा मारा रोय, बहुत मारा सोय' की कहावत चरितार्थ करती स्त्री। उसकी नींद ही उसकी नानक वाली डुबकी है।
'रोमॅटिक वेग्मेंट' की अवधारणा भारत में कई कलेवरों में फूटी - रामनरेश शर्मा के 'पथिक', छायावादी कविता के 'परदेसी', राज कपूर के 'आवारा', राहुल सांकृत्यायन के घुमक्कड़, अज्ञेय के 'यायावर' की याद-भर दिलाकर इस प्रश्न पर आया जाये कि विलगायजन्य यही यायावरी एक हताश स्त्री के चित्त पर घंटे और वह भी खुली सड़क पर भटकती फिरे तो क्या हो! ध्यान रहे कि यह भटकन अधूरे प्रेम की पूर्णता की असम्भव तलाश-भर न होकर एक ऐसे बृहत्तर परिवेश की सम्भावना के स्रोतों की तलाश है जहां पेड़, पशु-पक्षी, कीट-पतंग और सब नस्लों-अति लिंग वर्गों के लोग मधुरिम पारस्परिकता के साथ जी सकें-पद्धां पीड़ित नहीं, सहकारिता-प्रेरित हो बृहत्तर संसार हमारा
सम्धी गारी साँसों की तरह सन्तुलित पूरे-पूरे वाक्यों में अनुराधा अपने उपाख्यान रचती है, अपने समय के गम्भीरता पर और मार्मिक आयन-उपाख्यान करती के अनुराधा की कविताएं इस तरह उकेरती है कि अच्छाई फूल की तरह चटक जाये हड्डियों में सत्य को स्वप्न की तरह बाँचने की कला इनकी साथी हुई है! चित्त की गहनतम मासूमियत से तभी तो ये उचार पाती हैं-
मुझ पर भरोसा मत करना
मैं एक महामारी से लड़ने के लिए
धरती के अलग-अलग कोनों में बैठे
तीन दोस्तों से
एक ही तारीख़ पर मिलने का वायदा कर लेती हूँ
जीने का हठ मिलने में नहीं मिलने की उस बात में है
ताबीज़ की तरह बँधी है जो हमारे निर्जन दिनों की बाँह पर
मैंने अपनी हर क़ैद इन्हीं दिवास्वप्नों की
पीठ पर टिककर गुज़ारी है।
अधूरे छूटे प्रेमों से पटी पड़ी है दुनिया! सब रास्ते बन्द हैं! सब अभिभावक शक्तियाँ पक्षाघात की शिकार टुकुर-टुकुर मुँह देखती हैं। बेटियाँ लाइब्रेरी से हॉस्टल लौटना चाहती हैं... और रास्ते ख़तरनाक हैं। घर कहीं नहीं है। कोई राह कहीं नहीं जाती। ऐसे समय में ये कविताएं ही हैं, जो हर स्थिति में अँकवारती हैं टूटे-हारे मनुष्य को, दुलारती हैं उसे और कोई शर्त नहीं वदतीं-
प्रेम न करना चाहो तो लम्बी यात्रा के रूखे रुष्ट
सहयात्री से बैठे रहना चुपचाप मेरे पास
...उतर जाना बीच के किसी स्टेशन पर
ट्रेन, स्टेशन, जहाज़, लंगर, सड़कें बार-बार आती हैं कविताओं में और एक अकेली लड़की अपनी साइकिल सँभालती हुई! उत्पादन के साधन बदलते हैं और यातायात के तो भाषिक अवचेतन में तैरते हुए विम्ब और भाषिक लय-दोनों की प्रकृति बदलती है, पर कुछ मोटिफ हैं, जो बार-बार सर उठा लेते हैं-ख़ासकर इस तरह की प्राणवान कविताओं में सर उठाकर वे बज़िद खड़े हो जाते हैं कि हमें पढ़ो और हमारा निहितार्थ ढूँढ़ो!
- अनामिका
साहित्य अकादेमी से पुरस्कृत लेखिका
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