मूलतः ये तीन अनोखी शादियों के क़िस्से हैं। बहुत कम लोगों ने ऐसी शादियाँ देखी होंगी। य क़िस्से सिर्फ़ उन शादियों के क़िस्से नहीं हैं।कह सकते हैं कि इन क़िस्सों में वे शादियाँ भी हैं। इनमें मरुभूमि की लोक संस्कृति की झलक है।‘कोटड़ी’ यानी गाँव में सामूहिक स्थल जहाँ पुरुष बैठते हैं। ‘धोरा' यानी रेत का टीला| मेरे गाँव की कोटड़ी के निकट के इस धोरे पर गाँव के लगभग सभी किशोर, युवक, अधेड़ और वृद्साँ झ के समय बैठते थे और फिर जो क़िस्से निकलते थे उनमें लोक जीवन के सुख-दुःख, दुश्वारियाँ-खुशियाँ, हास्य-व्यंग्य तो होते ही थे उनमें जीवन का गहरा दर्शन भी होता था। इस क़िस्सागोई में घर की गुवाड़ी की, गाँव की कोटड़ी की, खेतों की सौंधी महक है। उजड़ रेगिस्तान की रलकती रेत में पनपता जीवन है।नीति का बखान है तो अनीति पर आक्षेप भी है। मैंने इन तीन क़िस्सों को मोह, निर्मोह और विरक्ति में विभक्त किया है। इसलिए पुस्तक के प्रारम्भ में आप क़िस्सों और गाँव के मोह में डूबते जायेंगे। जैसे-जैसे आगे बढ़ेंगे उस मोह से मुक्त होने लगेंगे और अन्त तक पहुँचते-पहुँचते गाँव से, जो मोह प्रारम्भ में पैदा हुआ था आप उससे विरक्त होने लगेंगे।
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