जो दिखता नहीं - जीवन की विकट दुरूहताओं की अपने अनोखे कथा शिल्प से मनोवैज्ञानिक पड़ताल राजेन्द्र दानी की सृजनात्मकता का निकष है। पिछले लगभग चालीस वर्षों से कथा-लेखन में अनवरत सक्रिय शीर्षस्थ कथाकार राजेन्द्र दानी का यह पहला उपन्यास 'जो दिखता नहीं' के केन्द्र में एक ऐसा निम्न मध्यम वर्गीय परिवार है जो पिछले तीन दशको में अपने तमाम संघर्षों के बलबूते अपनी विपन्नता, अपने अभाव, अपने वर्गीय तनाव, अपने सन्त्रास और अपनी तमाम तरह की निराशाओं से कथित रूप से उबर तो गया पर नये और उन्नत दर्जे में पहुँच जाने के बाद उसे पता भी न चला कि कब एक अदृश्य संक्रमण के बाद उसने भव्यता और सम्पन्नता की लालसा में एक रसहीन और प्राणहीन जीवन को अपना लिया है, जहाँ एक नयी अर्थहीनता की शुरुआत हो रही है, जहाँ कथित शिखर में निहित एक बीहड़ ढलान है और जहाँ शेष जीवन की अस्मिता भयावह रहस्यमयता के दुर्दमनीय शिकंजे में बुरी तरह फँस चुकी है। अपने इस आख्यान में राजेन्द्र दानी ने न केवल इस काल विशेष में अवतरित भूमण्डलीकरण और उदारीकरण के दौर में चिन्हित इन भीषण, भयावह जीवन स्थितियों के नेपथ्य में निहित अदृश्य कारकों की शिनाख़्त की है, बल्कि उसे अपने रचना कौशल से सम्प्रेषणीय और पठनीय भी बनाया है।
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