शब्द इस शताब्दी का - अनेक शताब्दियाँ मिलकर एक शब्द बना सकती हैं या नहीं यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता, किन्तु इतना तो विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि एक शब्द—केवल एक शब्द—अनेक शताब्दियों को जन्म दे सकता है। शब्द-शिल्प और भावयोग दोनों के सामरस्य से अपनी सारस्वत साधना को सार्थक और सशक्त बनाने वाले युगचेता कवि शेषेन्द्र इसी मनोभूमि पर पहुँचकर कहते हैं। 'अरण्यों के गर्भों से मैंने जो भाषा सीखी है, अब शताब्दियाँ उसी भाषा में बोलेंगी' शताब्दियों की इस काल-विजयिनी भाषा के मर्मज्ञ होने के कारण ही यह कवि काल को काग़ज़ बनाकर उस पर अपने सपने लिख देता है, और उसके नीचे अपनी साँस से हस्ताक्षर कर देता है। शेषेन्द्र की कविता ज्योत्स्ना की भाँति विलक्षण है जो विभिन्न रुचियों के लोगों को एक-साथ मनोहर लगती है। सहृदय कवियों और समालोचकों को उसमें नैसर्गिक सुषमा दिखाई देती है तो मानवता के प्रेमियों को उसमें इन्सानी मुहब्बत की ख़ुशबू भी अपनी ओर खींच लेती है। भारतीय ज्ञानपीठ का सौभाग्य है कि ऐसे रससिद्ध और युगद्रष्टा तेलुगु कवि की काव्य-साधना से हिन्दी जगत को परिचित कराने का उसे अवसर मिला।
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