पहली बार - 'पहली बार' युवा कवि सन्तोष चतुर्वेदी का पहला संग्रह है लेकिन इसे पढ़कर जिस बात ने मेरा ध्यान सबसे पहले आकृष्ट किया वह उसकी कविताओं का पहलापन नहीं, बल्कि उनकी एक सुगठित बनावट है, जो परिपक्वता की माँग करती है। मुझे यह कहने में कतई संकोच नहीं कि इस युवा कवि ने एक सहज शिल्प की वह परिपक्वता अर्जित कर ली है, जो लम्बे काव्यानुभव के बाद प्राप्त होती है। यहाँ कविताओं का फलक 'प्रेम की बात' से 'माचिस' की तीली तक फैला हुआ है और कुछ इस तरह कि निजी और सार्वजनिक संवेदना के रसायन घुल-मिल गये हैं। यह कवि पूर्वी उत्तर प्रदेश के उस हिस्से से आता है, आज जिसे पूर्वांचल कहा जाता है। खोजने पर कई ऐसे अनुभव-सन्दर्भ यहाँ मिल सकते हैं, जो कवि की ज़मीन का पता देते हैं। मेरे जैसे पाठक को ऐसे संकेतों में कवि का वह चेहरा दिखाई पड़ता है जो उसे अन्यों से अलग करता है। आगे वह चेहरा एक नयी चमक के साथ सामने आयेगा—बल्कि आता रहेगा— यह संग्रह इसकी गहरी आश्वस्ति देता है। अपनी बनावट में ये कविताएँ सहज सम्प्रेष्य हैं। यह कवि अपने समय के संकटों से रू-ब-रू तो होता है, पर एक उम्मीद के साथ यह कवि की संवेदना का एक ऐसा महीन धागा है जो सारी कविताओं में फैला हुआ है—लगभग माचिस कविता की उस तीली की तरह जो 'सब की जुदा-जुदा ज़िम्मेदारियों और ज़रूरतों में अनवरत शामिल है।' ‘रास्ते नहीं चाहते—कोई बोले उनकी जयजयकार'—यह पंक्ति लिखनेवाले इस कवि की यह उक्ति वस्तुतः उसके सर्जनात्मक आत्म-विश्वास को सूचित करती है क्योंकि वह जानता है कि 'रास्तों से कहीं न कहीं मिल जाते हैं रास्ते—दुनिया का नया मानचित्र खींचते हुए।' मुझे विश्वास है, नये मानचित्र के आकांक्षी इस कवि की आवाज़ दूर तक और देर तक सुनी जायेगी।—केदारनाथ सिंह
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