दूसरे शब्दों में - निबन्ध लिखना—मेरे लिए चिन्ताओं को सुलझाना नहीं, जितना बदलते हुए परिप्रेक्ष्य में उनका नये सिरे से सामना करना है। अपने इस नये निबन्ध-संग्रह में निर्मल वर्मा ने उन समस्त दबावों और तकाज़ों को अपनी चिर-परिचित प्रश्नाकुलता से रेखांकित किया है, जिनके कारण आज शताब्दी के अन्तिम वर्षों में हमें पुनः अपनी भाषा, परम्परा और जातीय अस्मिता की पड़ताल उतनी ही ज़रूरी जान पड़ती है, जितनी इस शताब्दी के आरम्भ में अनेक मनीषियों को लगी थी। पिछले वर्षों के दौरान इतिहास के आईने पर जो धूल जमा हो गयी है, उसे पोंछकर स्वयं अपनी सही और यथार्थपूर्ण छवि उकेरने के लिए निर्मल जी ने इधर के कई ज्वलन्त विषयों पर पुनः चिन्तन किया है। उन्होंने 'धर्म-निरपेक्षता' जैसे प्रश्नों को भारतीय परम्परा के सन्दर्भ में विश्लेषित करने का दुस्ससाहस भी किया है। कहना होगा कि निर्मल वर्मा के ये विचारोत्तेजक निबन्ध हमें बार-बार हमारी सभ्यता के पीड़ा-स्थलों की ओर ले जाते हैं। ठीक जगह उँगली रख पाने के कारण ही उनके ये लेख स्वातन्त्र्योत्तर भारतीय साहित्य में अपनी तरह का अकेला और अनूठा सांस्कृतिक हस्तक्षेप रहे हैं। आत्म-मन्थन की पीड़ित अन्तःप्रक्रिया से गुज़रते हुए निर्मल जी भारतीय संस्कृति के उन समस्त स्मृति-संकेतों और प्रत्ययों की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करते हैं, जिन्हें हम आज लगभग भूल गये हैं। वास्तव में 'दूसरे शब्दों में' के ये निबन्ध भारतीय आत्म-स्मृति को पुनः अर्जित करने का भी एक सार्थक प्रयास हैं।
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