असुन्दर सुन्दर
'असुन्दर सुन्दर' युवा कवि जितेन्द्र श्रीवास्तव का दूसरा कविता संग्रह है। इस संग्रह में कवि का कला बोध और काव्य-विवेक अधिक गझिन और परिष्कृत हुआ है। काव्य-निकष की खोज में कवि ग़ालिब तक जाता है और यह निष्कर्ष प्राप्त करता है कि कविता दुविधा के बीच जीवन की राह तलाशने का साधन है। आम आदमी से सजग संवाद करती हुई इस संग्रह की कविताओं में उपस्थित हमारा वर्तमान इतिहास और अतीत की स्मृतियों में संगमित होकर अपने समूचे विडम्बनात्मक यथार्थ के साथ उजागर हुआ है। स्मृतियों में बार-बार लौटना जितेन्द्र की कविता की एक ख़ास प्रविधि है। स्मृति के आत्मीय सन्दर्भों की पुनराविष्कृति से अपने समय के विभ्रमकारी यथार्थ को उजागर करने की यह प्रविधि जितेन्द्र को उनके समवयस्क कवियों में विशिष्ट बनाती है। उनकी कविता को एक कठिन आत्मसंघर्ष से गुज़रता हुआ लगातार महसूस किया जा सकता है। 'असुन्दर सुन्दर', 'रामबचन भगत', 'सोते हुए आदमी को देखकर', 'किरायेदार की तरह', 'जो इनके घर भी' आदि कर्मलीन मनुष्य के श्रम स्वेद में सौन्दर्य की खोज करती हुई अविस्मरणीय कविताएँ हैं। श्रमशील जीवन के प्रति भावुक प्रतिबद्धता प्रदर्शन से कहीं अधिक जितेन्द्र की कविता एक गहरी और संवेदनशील जिज्ञासा की कविता है। वहाँ सोये हुए आदमी के चेहरे के पीछे छिपे अथाह दुखों तक का पता लगा लेने की गहरी ललक है।
जितेन्द्र श्रीवास्तव भाषिक मितव्ययिता और शब्द चयन में अत्यन्त सजग कवि हैं। घर-परिवार और जीवन को ऊष्मा से भर देनेवाले तमाम तरह के आत्मीय सन्दर्भ उनकी कविता का केन्द्र बनाते हैं और कविता को एक विस्तृत सामाजिक परिधि प्रदान करते हैं। इन अर्थों में यह कविता-संग्रह हमारे समय की हिन्दी कविता की एक उल्लेखनीय उपलब्धि है।
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