सब्ज़ तोरण के उस पार - पश्चिम बंगाल के उत्तरांचल में चाय बागानों के बीच बसे एक ऐसे प्रतिनिधि परिवार का, जिसकी धमनियों में हिन्दुस्तानी और अंग्रेज़ों के मिश्रित रक्त का संचार हो रहा है, इस उपन्यास में जीवन्त चित्रण किया गया है। शालजूड़ी के अंग्रेज़ी स्कूल की प्राध्यापिका शइला (शीला) के माँ-बाप का आपस का जीवन सन्देहों और तनाव से भरा रहा है, स्वयं शइला को भी अपनी किशोरावस्था से कितने ही उतार-चढ़ाव देखने-झेलने पड़े हैं। युवावस्था में विवाह के पहले ही अपने युवा साथी से ठगी जाने से वह अपना हर क़दम बड़ी सावधानी से रखकर बढ़ना चाहती है और अन्त में जिसे वह अपना जीवन साथी बनाती है, वहाँ तो वह सन्देहों के एक और विशाल चक्रव्यूह में उलझ जाती है जहाँ से उसे निकलने का कोई रास्ता भी नहीं सूझता। शइला का अपना अहं है, उसके अपने कुछ उसूल हैं जिन्हें वह निरन्तर पोसती है, भले ही इसका दण्ड स्कूल में पढ़ रहे उसके नन्हें से बालक को ही क्यों न भुगतना पड़े। कथोपकथन की शैली इतनी सुन्दर, सहज और रोचक है कि पाठक अन्त तक बराबर उससे बँधा रहता है। ऐसा चित्रण केवल आशुतोष की लेखनी से ही सम्भव था। समर्पित है हिन्दी-जगत् के पाठकों को ज्ञानपीठ की 'भारतीय उपन्यासकार' श्रृंखला में प्रकाशित एक और सुन्दर निर्मिति— एक अनुपम भेंट।
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