महादेवी वर्मा का सबसे बड़ा अवदान तो यही है कि 'डिग्निफायड सफरिंग' के विक्टोरियन आदर्श की काट उन्होंने 'सविनय अवज्ञा' में ढूँढ़ी। अवज्ञा मगर सविनय । उनकी भाषा सविनय अवज्ञा की मर्यादित और प्रतीककीलित भाषा है; उसमें एक शालीन-सा रोबदाब और प्रज्ञापूर्ण सन्तुलन है : ‘अप्प दीपो भव' वाला ।
स्वाभिमान से महमह जीवन उन्होंने जिया आधुनिक स्त्री की तरह - पढ़ते-पढ़ाते वंचितों, पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों का एक महापरिवार, एक कम्यून गठित करके ! किसी ध्रुपद के आलाप में जैसे बार-बार कुछ बीज-शब्द आते हैं, इनके गीतों में भी विरह की आलापचारी आती है ! पर इस विरह को एक रूपक; 'ठकुरी बाबा' की बटुली की तरह पढ़ा जा सकता है, बटुली, जिसमें कुछ भी बँधा हो सकता है, किसी भी तरह का समसामयिक अभाव ! विरह या वियोग देशकाल की आदर्श स्थिति या स्वाधीनता का भी हो सकता है।
पुरुष की छाया वाली रूढ़ि जीवन में तो महादेवी ने तोड़ी, कविताओं में अवश्य 'चेतन' से अधिक 'अवचेतन' का, 'यथार्थ' से अधिक 'आदर्श' का दबाव इन पर बना हुआ है, पर उस घटाटोप में भी बिजलियाँ चमकती हैं । 'क्या पूजा क्या अर्चक रे' कहते हुए कर्मकाण्ड को धता बताती महादेवी आजादी के बाद के एक खिन्न गीत में कहती हैं :
'यह विरह की रात का कैसा सवेरा है,
पंक-सा रथचक्र में लिपटा अँधेरा है।'
सन्दर्भ से स्पष्ट है कि विरह स्वाधीनता का था, प्रतीक्षा उसी की थी । स्वाधीनता आयी, विरह की रात कटी, सवेरा हुआ मगर विभाजन और आत्मविभाजन की त्रासदियों से विदीर्ण! विजयरथ का पहिया रक्तकीच से सना होने का कोई गैर-राजनीतिक भाष्य भला क्या होगा ! जिस दाग़- दाग़ अँधेरे की बात महादेवी यहाँ करती हैं, उसे पढ़कर फ़ैज़ की ये पंक्तियाँ एकदम से याद आ जाती हैं :
‘ये दाग़-दाग़ उजाला, वो शब गुजीदा सहर ।
कि इन्तज़ार था जिसका, ये वो सहर तो नहीं।'
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