वेद में छन्द को देवताओं की धेनु क्यों कहा गया है, इसका अर्थ ठीक से खुला जब बहुत दिनों बाद सधे हुए छन्दों में द्रौपदी का पाठ सुना। हमारे आर्ष ग्रन्थों में पूरी प्रकृति एक प्रतीककीलित कविता की तरह रूपायित है। ऊर्ध्वबाहु संकल्प ही देवता हैं और देवियाँ हैं संकल्प पूरा कर लेने में लगी आत्मशक्ति, वह आधारभूत ऊर्जा जो पाँच तत्त्वों में अन्तर्निहित है । द्रौपदी तो साक्षात् अग्नि है। अग्नि जिस धधकती हुई भाषा में तर्क करती हुई प्रकट होती है, उसे छन्दों में समेट पाना आसान न रहा होगा, पर मृत्युंजय ने यह दुष्कर कार्य किया है। जिस विधायिका संकल्प शक्ति ने ये छन्द -धेनु हाँके होंगे, वह अपरा तो होगी ही। इन छन्द-धेनुओं के गले में सुभग घंटियाँ बन्धी हैं। एक गोधूलि वेला-सी पसरी है पूरी कविता में।
आशा उजाला है, आशा अन्धेरा है । यह सन्धिप्रकाश रागों की वेला है- अग्नि के प्राकट्य का सही समय। अपनी सहस्र जिवाओं से अग्नि तर्क करती है कि स्त्री चबेना नहीं थी कि एक-एक मुट्ठी भाइयों में बँट जाती । प्रतीक-स्तर पर देखें तो कह सकते हैं कि अग्नि-तत्त्व सब भाइयों में बराबर नहीं था और माँ की अभिलाषा रही होगी कि वह अग्नि सबको बराबर उद्दीप्त करे जो आगे के कठिन दौर में इन्हें सिद्धसंकल्प बनायेगा, पर प्रकृति से ज़बर्दस्ती किसी की नहीं साधती । जहाँ स्त्री, प्रकृति और धरती पर ज़बर्दस्ती होती है - वहाँ विनाश अपना इनिशियल ( हस्ताक्षर - संकेत) कर ही जाता है।
आनन्दवर्धन ने ध्वनियों की चर्चा करते हुए एक अद्भुत बात लिखी है - जो पाठ दूसरे पाठों को जन्म नहीं दे पाते, उन्हें अयोनि पाठ कहना पड़ेगा ! अयोनि पाठ क्षीणध्वनि होते हैं। आगे आने वाली पीढ़ी उनसे अन्तःपाठीय संवाद करे भी तो कैसे! मेरे जानते ध्वनि ही अन्तःपाठ है। और मृत्युंजय जी ने मृत्युंजय भाव में ही महाभारत जैसे व्यंजक, ध्वनि - बहुल पाठ से मग्न अन्तःपाठीय संवाद किया है - वह भी स्त्री-दृष्टि से । परकायाप्रवेश की यह क्षमता इन्हें स्त्रीवाद के गर्भ से जन्मा एक नवल पुरुष सिद्ध करती है । अनन्त शुभकामनाएँ!
- अनामिका
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