पिछले वर्षों में यदि निर्मल वर्मा का कोई एक निबन्ध सबसे अधिक चर्चित और ख्यातिप्राप्त रहा है, तो वह भारत और यूरोप है, जो उन्होंने हाइडलबर्ग विश्वविद्यालय, जर्मनी में प्रस्तुत किया था। भारत और यूरोप महज दो इकाइयाँ न होकर दो ध्रुवान्त सभ्यताओं का प्रतीक रहे हैं...एक-दूसरे से जुड़कर भी दो अलग-अलग वास्तविकताएँ। पश्चिम से सर्वथा विपरीत भारतीय परम्परा में प्रकृति, कला और दुनिया के यथार्थ के बीच का सम्बन्ध हमेशा से ही पवित्र माना जाता रहा है। उसमें एक प्रकार की ईश्वरीय दिव्यता आलोकित होती है... शिव के चेहरे की तरह कला जीवन को परिभाषित नहीं करती, बल्कि स्वयं कलाकृति में ही जीवन परिभाषित होता दीखता है।' भारत और यूरोप के लिए निर्मल वर्मा को 1997 में भारतीय ज्ञानपीठ के मूर्तिदेवी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। परम पावन दलाई लामा से पुरस्कार स्वीकार करते समय निर्मल वर्मा ने कहा कि उन्हें इस बात की प्रसन्नता है कि यह पुरस्कार उनके निबन्धों की पस्तक पर है। 'ये निबन्ध मेरे उन अकेले वर्षों के साक्षी हैं जब मैं...अपने साहित्यिक समाज की पर्वनिर्धारित धारणाओं से अपने को असहमत और अलग पाता था...मैं अपने निबन्धों और कहानियों में किसी तरह की फाँक नहीं देखता। दोनों की तष्णाएं भले ही अलग-अलग हों, शब्दों के जिस जलाशय से वे अपनी प्यास बुझाते हैं, पर एक ही है। निबन्ध मेरी कहानियों के हाशिए पर नहीं, उनके भीतर के रिक्त-स्थानों को भरते हैं, जहाँ मेरी आकांक्षाएँ सोती हैं....
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