‘फिर वसन्त आये...' एक सतत यात्रा है- अहसासों की, अपनी ज़मीन से जुड़े हुए होकर भी दूर रहने के अनुभवों की, एक विश्वास की, विषमता में स्वयं को सकारात्मकता से जोड़ सकने की, एक अमर-पक्षी की तरह अपने आपको फिर से जुटा कर खड़ा कर सकने की हिम्मत की, और अन्ततः एक विजय और उल्लास की। ये अनुभव जो सम्पूर्णतः मेरा है, अपने आपमें अक्षत है लेकिन फिर भी आपको अपने इर्द-गिर्द घूमता हुआ सा ही दिखाई पड़ेगा। कविता किसी पलायन का नाम नहीं है, वरन सहजता और सजगता से जो साथ व्यतीत हुआ है उस अनुभव को समाज की पृष्ठभूमि पर निष्पक्ष होकर बिना किसी आडम्बर के काग़ज़ पर उतार देने का ही तो नाम है।
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