तलाश साहिल की मोहम्मद अली 'साहिल' का 10 बरस में तीसरा शेरी मजमूआ है। पुलिस जैसे सख़्तगीर महकमे में अपनी मन्सबी ज़िम्मेदारियाँ निभाने के साथ-साथ शेर-ओ-अदब से बे-पनाह लगाव और ख़िदमत-ए-शेर-ओ-अदब का जज़्बा जो साहिल के सीने में एक तलातुम की सूरत में रक्स करता रहता है उसकी सताइश बरहाल लाज़िम है। मेरे साबिक़े में बहुत कम ऐसे लोग हैं जो अपने शौक़ को जुनून की हद तक परवरिश करने का अज़्म रखते हैं और हमा-वक़्त बेहतर से बेहतर की सिम्त सफ़र करने पर कमर बस्ता रहते हैं।
इस शेरी मजमूए में जगह-जगह ऐसे एहसासात, मुशाहिदात और तजरबात अशआर की शक्ल में बिखरे हुए हैं जिनसे साहिल के मिज़ाज को बा-आसानी समझा जा सकता है। ज़िन्दगी के नशेब-ओ-फ़राज़, तलख़ियाँ, मसर्रतें सब उनकी आँखों के सामने हैं, जिन्हें शेरी पैकर में ढालकर वह अपने इज़हार का वसीला करते हैं।
उनके अशआर उनकी फ़िक्र की वुस्अत की तरजुमानी करते हुए क़ारिईन को आमादा करेंगे कि उनका ये शेरी मजमूआ पढ़ा जाना चाहिए और इसे बुकशेल्फ़ की ज़ीनत नहीं बल्कि अपने सिरहाने की ज़रूरत बना के रखा जाये।
मुझे उम्मीद-ए-कामिल है पिछले मजमूओं की तरह उनका ये मजमूआ भी क़ारिईन के दिलों को राहत और आँखों को चमक अता करेगा और उनके आइन्दा शेरी कारनामे का मुन्तज़िर बना देगा।
नेक ख़्वाहिशात के साथ ।
-इंजी. वासिफ़ फ़ारूक़ी
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