अरुण शीतांश की कविताएँ अपनी सघन-संश्लिष्ट संरचना के बावजूद अपनी विरल और मौलिक सहजता से चकित करती हैं। उन्होंने कविता का अपना निजी शिल्प जिस तल्लीन समर्पण के साथ अर्जित किया है, उसकी बानगी इस संग्रह की हर एक कविता है। कवि न सही, लेकिन यदि कविता के एक दीर्घकालिक समर्पित पाठक की हैसियत से कहना हो, तो निस्संकोच कहा जा सकता है- 'अरुण शीतांश की कविताएँ पिछले चार दशक की असंख्य प्रतिष्ठित और प्रख्यात हिन्दी कविताओं का प्रतीक्षित 'आसव' या 'अर्क' हैं। कोई चाहे तो इन्हें मृत कविताओं को पुनर्जीवित करने वाला 'अमृत' कह ले या हिन्दी कविता के किसी अद्वितीय कीमियागर द्वारा तैयार किया गया कोई सहज लेकिन जादुई रसायन-बूटी ।'... ध्यान रहे, यह कहन किसी 'उप' या 'अप' हास में की गयी टीका-टिप्पणी नहीं, बल्कि ज़िम्मेदार आलोचना और पाठिकता की ज़रूरी गम्भीरता के साथ की गयी मूल्यात्मक और वस्तुपरक समीक्षा है।
अतिरंजना न लगे, तो इन कविताओं से गुज़रते हुए यह भी कहा जा सकता है कि अरुण की प्रस्तुत कविताएँ पिछले कुछ दशकों की बहु-उल्लेखित कविताओं का आज के समय में पढ़ा जाना गैर-ज़रूरी बनाती हैं।
माँ को लेकर लिखी गयीं हिन्दी में असंख्य चर्चित और अ-चर्चित कविताएँ हैं, लेकिन अरुण शीतांश की एक अनागरिक का दुःख शीर्षक कविता सबसे छिटक कर उनसे दूर अलग खड़ी हो जाती है-
“कहीं भी जाने से डरती है माँ
जबकि शादी के समय आठवीं पास थी
माँ से तेज़ उस समय एक चिड़िया थी
जो पिंजरे में बन्द होने के बाद भी
पूरा रामचरितमानस कर ली थी याद और
श्रीमद्भगवद्गीता भी
अब चिड़िया भी नहीं गाती कण्ठ से
कि आये रुलाई...”
यह कविता सम्भवतः अरुण शीतांश की अनेक कविताओं की मूल-अन्तर्रचना को समझने की महत्त्वपूर्ण कुंजी है। पितृ-केन्द्रित परिवार की तीन पीढ़ियों की काल-रेखा से गुज़रती हुई माँ, अपनी इस यात्रा में एक साथ परिवार, समाज और उसकी सांस्कृतिक-सामुदायिक परम्परा, अर्थ-तन्त्र, योनिक-भेदपरकता, सत्ताकेन्द्रित राजनीति, मानवीय संवेदना, प्रकृति और पर्यावरण का मार्मिक और अविस्मरणीय उदाहरण बन जाती है।
“माँ पिंजरोई गाँव की है
आश्चर्य है कि पिंजरोई में
कोई पिंजरा नहीं है
मेरा गाँव विष्णुपुरा है
और यहाँ भी कोई विष्णु नहीं है...”
लगभग ऐसी ही एक कविता 'दादी' पर है- जैसे वृक्ष झुकते हैं/दादी झुक गयीं धनुषाकार/ पेड़ रो रहे...।
पारिवारिक सम्बन्धों और आस-पास के अन्य मानवीय सम्बन्धों के ताने-बाने को गहराई के साथ देखने वाली ऐसी आँख विरले ही कवियों के पास होगी। अरुण की किसी एक कविता की पंक्ति है- अब एक पुस्तक ताक में है पाठक के लिए और एक पाठक ने ओढ़ ली है चादर... आशा है, चादर ओढ़े पाठकों को इस संग्रह की कविताएँ झकझोर कर जगायेंगी, उनकी चादर छीन कर उन्हें किताब के रू-ब-रू खड़ी करेंगी क्योंकि- एक आदमी कई साल की रोशनी से बनता है।... एक पीपल कई बारिशों में नहाता है...!
अरुण शीतांश का यह कविता संग्रह वर्षों की धूप, पानी, हवा में नहाये हुए कवि की कविताओं का संग्रह है, जो न अपने समय से पृथक् है, न अपनी ठेठ स्थानिकता से। उसने कवि होने की सहज दक्षता अर्जित कर ली है।
अरुण शीतांश के इस नये कविता संग्रह के लिए शुभकामनाओं के साथ यह उम्मीद भी है कि इस संग्रह की कविता के पाठक भरपूर स्वागत करेंगे और अपने समय के इस प्रिय कवि की कविताओं को सिद्ध और प्रसिद्ध करेंगे।
-उदय प्रकाश
Log In To Add/edit Rating
You Have To Buy The Product To Give A Review