कविता की समकालीन संवेदना -
घर में घुस आये बाज़ार से मानवीय सम्बन्धों की रागात्मकता में जहाँ एक ओर शुष्कता और संवेदनहीनता की स्थिति पैदा हुई है तो दूसरी ओर व्यवस्था की ख़ामियों ने जीना दूभर कर दिया है। कहीं बचपन बाज़ार में नीलाम होने के लिए अभिशप्त है तो कहीं जवान जिस्म पर गिद्ध दृष्टि है। कहीं खेल-कूद की उम्र में बुधिया लुगदी गादी बीनती है तो कहीं काग़ज़ -क़लम पकड़ने वाले कोमल करों में फावड़ा-कुदाल है। कहीं बचपन सिसकता है तो कहीं जवानी में बुढ़ापा दिखता है। अभाव और असमंजस, दुविधा और दुश्चिन्ता ने आम आदमी को जहाँ सतत संकट-ग्रस्त किया है तो वहीं अहम्मन्यता और अभिमान में डूबे धनपशुओं की चाँदी ही चाँदी है। लोभ, लालच, स्वार्थ और ईर्ष्या-द्वेष ने वातावरण को अराजक और अमानवीय बनाया है तो हिंसा और आतंक मनुष्यता के लिए ख़तरा है। कविता का यही समकाल है। अभिव्यक्ति के ख़तरे उठाकर भी अगर कविता ने इस समकालीनता को अपनी संवेदना का विषय बनाया है तो इसलिए कि बेहतर मनुष्य और बेहतर समाज की संकल्पना की साकारता उसका ध्येय है।
जिजीविषा और आस्था का उत्सव रचने की प्रयत्नशीलता ने उसके सरोकारों की दुनिया का विस्तार किया है। विसंगतियों और विडम्बनाओं से मुक्ति की आकांक्षा ने उसे विद्रोही और व्यंग्यपूर्ण बनाया है। इन्हीं का व्यापक और सघन विश्लेषण तथा मूल्यांकन किया है डॉ. त्रिपाठी ने
इस पुस्तक में।
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