हिन्दी साहित्य का इतिहास और उसकी समस्याएँ - सामाजिक बदलाव की परिस्थितियाँ, कला एवं साहित्य की नयी रुचियों का उन्मेष, रचनाकारों की उनकी प्रस्तुतियों के प्रति तत्परता तथा परम्परा से साहित्य को जोड़े रहने तथा अनेकरूपों में उनसे मुक्ति की आकांक्षाओं के द्वन्द्वों के बीच साहित्य के सृजन की परम्पराएँ उभरती हैं। साहित्य के इतिहासकार का दायित्व है, इन सबकी छानबीन करते हुए उसकी गतिशीलता का विश्लेषण करके सम्बद्ध यथार्थ को प्रकाश में लाने की चेष्टा करना। साहित्य केवल समाज की संचित् चित्तवृत्ति का प्रतिबिम्ब मात्र नहीं है और इस सिद्धान्त के समर्थक इतिहासकार स्वयं के इतिहास में आदिकालीन तथा रीतिकालीन साहित्यिक धाराओं का समुचित विवेचन नहीं कर सके हैं। साहित्य के इतिहास का स्वरूप भिन्न है। यह स्वरूप है-साहित्यिक परम्परा और उसके परिदृश्यों के बदलाव तथा उनसे सम्बद्ध भावी साहित्यिक विकास की क्रमबद्धता को सामने रखकर अतीत तथा सामयिक वर्तमान का विश्लेषण करते हुए उनके बीच संगति स्थापित करने का। यह संगति स्वयं में नयी परम्परा का बोध तथा भावी निर्माण की स्वयं विधायिका है। साहित्य के इतिहास में आकस्मिकता किसी अजनबीपन की देन नहीं, भविष्य की निर्मात्री परम्परा के बीच उत्पन्न होने वाली वह रचनात्मक चेतना है, जो लोक संगति के साथ जुड़कर पुनः नया इतिहास बनाने के लिए संकल्पबद्ध रहती है। हिन्दी साहित्य का इतिहास इस नयी संकल्पबद्धता से प्रारम्भ होकर पुनः उसी के प्राचीन हो जाने के बाद उसी के बीच से उत्पन्न पुनर्नवता के विश्लेषण से प्रारम्भ समापन एवं पुनः प्रारम्भ क्रम की निरन्तरता के साथ प्रतिबद्ध छानबीन है। हिन्दी साहित्य के अनेक इतिहासकार परस्पर कालखण्डों को नवीन तथा आकस्मिक मानने की पक्षधरता और अडिग साहित्येतिहास की धारा के बीच उसे नया द्वीप जैसा मानते हैं, यह सर्वथा संगत नहीं है।
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