कहानी विधा की दृष्टि से उदय प्रकाश ने कहानी के नये प्रतिमान रचे हैं। वे अपनी कहानियों में कहानीपन के निश्चित चौखटे तोड़ते हैं और फिर एक कुशल क़िस्सागो की तरह बारीक पच्चीकारी से इतिहास - कल्पना, मिथक- यथार्थ, स्मृति-संवेदना को इस तरह परस्पर गूँथते हैं कि सब मिलकर एक ऐसे घनीभूत अनुभव की सृष्टि करता है, जहाँ कथा-तत्त्व और सामाजिक चिन्तन दोनों समृद्ध होते हैं। उनकी कहानियाँ साहित्यिक जगत में जितनी प्रासंगिक हैं, समाजशास्त्रीय अध्ययन की दृष्टि से भी वे एक प्रबुद्ध, सचेत रचनाकार की कलम से निकली अपने समय का प्रामाणिक दस्तावेज़ हैं। कहानी बुनते हुए वे स्थितियों, पात्रों, भाषा का पूर्ण स्वतन्त्रता से प्रयोग करते हैं। उनमें मुक्तिबोध जैसी बेचैनी और परसाई जैसी तटस्थता है।'
-रेखा सेठी
('जनसत्ता' : 4 दिसम्बर 2005 )
'ये कहानियाँ क़िस्सागोई की उस मज़बूत रबिश पर चलती हैं, जहाँ एक कहानी कई कहानियों से मिलकर बनती हैं। और क़िस्सागो इतिहासकार, कलन्दर, दार्शनिक, प्रवचनकार, नासेह, संवाददाता, कवि, गद्यकार और फकीर सभी के भेष बनाकर आता-जाता रहता है। यह स्वर और अन्दाज़, जहाँ तक मेरी जानकारी है, समकालीन हिन्दी कहानी में किसी और से सध नहीं पाया है। इसमें निहित नाटक को क़ाबू में रख पाना और उसके काव्य को सुरक्षित रखना उदय के ही बस में है। उदय दरअसल ऐसे एथलीट हैं। जो अपने कथानक की लय और चाल को बनाये रखने के लिए बहुत कुछ कुरबान भी कर देते हैं। ...उदय 'सबआल्टर्न' (गरीब और अक्सर दलित जन) को नायक की तरह पेश करने की समस्या से, और मध्यवर्गीय 'संस्कृति' से उसके बुनियादी विरोध को पूरी रचनात्मक ताकत के साथ प्रस्तुत करने वाले अपनी पीढ़ी के अग्रणी कथाकार हैं।'
-असद जैदी
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