बिहार के गाँव की पृष्ठभूमि पर लिखा गया प्रस्तुत नाटक देशभर में व्याप्त बेरोज़गारी की समस्या तथा इससे उत्पन्न महँगाई व भ्रष्टाचार को शोषण व उत्पीड़न के परिप्रेक्ष्य में उजागर करता है। नाटक अन्ततः में भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ खड़े एक ऐसे युवक की संघर्ष गाथा है जो अपने अधिकारों की लड़ाई में अन्ततः धार्मिक अन्धविश्वासों द्वारा छला जाता है।
यह नाटक अपनी सम्पूर्णता में हमें सोच के उस बिन्दु तक साथ ले जाने का सफल प्रयत्न करता है, जहाँ बरबस यह सवाल मन को कचोटने लगता है कि आज के परिवर्तित बाह्य स्वरूप के बावजूद हमारे समाज में टुच्चेस्वार्थों से परिचालित विसंगतियाँ आज भी क्यों ज्यों-की-त्यों बरक़रार हैं। और शायद यही कारण है कि प्रगति की तमाम सही योजनाएँ गलत हाथों में पड़कर अपने क्रियान्वयन की प्रक्रिया में लक्ष्य-भ्रष्ट हो रही हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि भ्रष्टाचार सिर्फ़ बाह्य जगत् में ही व्याप्त नहीं बल्कि हमारे भीतर कहीं गहरे तक पैठ चुका है।
हास्य, विनोद व व्यंग्य के हल्के-फुल्के वातावरण में बेहद सहज, सरल एवं स्वाभाविक घटनाओं व संवादों के माध्यम से यह नाटक न केवल गहरी वैचारिकता जगाता है, बल्कि अपने पाठकों दर्शकों को अनिश्चयात्मक व निर्णयात्मक बिन्दु तक ले जा छोड़ता है जहाँ से एक सकारात्मक परिवर्तन की भूमिका की शुरुआत होती है।
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