जब हम किसी व्यक्ति के पत्र पढ़ते हैं (प्रायः किसी ऐसे व्यक्ति के, जो अब नहीं रहा), तो लगता है, जैसे क्षण-भर के लिए दरवाज़े का परदा उठ गया है, दबे पाँव देहरी पार करके हम उसके कमरे के भीतर चले आये हैं। हम एक कमरे से दूसरे कमरे में जाते हैं-मेज पर रखे काग़ज़ों को छूते हैं, कुर्सी को सहलाते हैं, और फिर खिड़की के बाहर फैले उदास उनींदे समुद्र को देखने लगते हैं। हम उन घड़ियों को पुनः जी लेना चाहते हैं, जो इन कमरों में रहने वाले व्यक्तियों की साक्षी (विटनेस) थीं। वे अब नहीं रहे, किन्तु पत्रों में उनकी उपस्थिति आज बरसों बाद भी उतनी ही ठोस, उतनी ही सजीव लगती है, जितना कभी उनका व्यक्तित्व रहा होगा।
-निर्मल वर्मा
कभी निर्मल वर्मा ने यह चेखव के पत्रों के बारे में लिखा था। आज जब वह नहीं हैं, तो यह कथन अक्षरशः उनके अपने पत्रों पर भी लागू होता है। युवा कथाकार जयशंकर को लिखे इन पत्रों में उनके जीवन के अन्तिम पच्चीस वर्षों की झलक मिलती है-वे क्या पढ़ रहे थे, सोच रहे थे, कैसी यात्राएँ कर रहे थे। यहाँ एक जीवन है, जो सामूहिक रूप से जिया जा रहा है-अनेक अदृश्य किन्तु सक्रिय उपस्थितियों के साथ ।
अपने समय के सबसे मौन-पसन्द, प्राइवेट माने जाने वाले लेखक श्री निर्मल वर्मा को पाठकों, लेखक-मित्रों की ढेरों चिट्ठियाँ आती थीं और वे हर चिट्ठी का जवाब देते थे। अब जब वह चिट्ठियाँ पुस्तक रूप में हिन्दी जगत के सामने आनी शुरू हुई हैं, इनमें निर्मल रचना-संसार को जानने के कई अन्तःसूत्र मिलेंगे, ऐसा निश्चित है।
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