मोनिका कुमार के काव्य-संग्रह की कविताओं को देखकर हिन्दी के समकालीन काव्यजगत का बहुत-सा कुहासा कृत्रिम लगता है, प्रदूषण के उन मानदण्डों की उपज जो हमारी जीवन-शैली के नियामक हैं। इन कविताओं में यह भरोसा झलकता है कि ये मानदण्ड जीवन के नियामक नहीं हैं। जिस हद तक जीवन को उसकी शैली की दासता से छुड़ाने का नाम स्वतन्त्रता है, उस हद तक ये कविताएँ स्वतन्त्रता की भी पक्षधर कही जा सकती हैं। किन्तु 'पक्षधर' इन कविताओं के सन्दर्भ में एक अजनबी शब्द है। जैसा कि संग्रह की पहली कविता तरबूज़ देखना से ध्वनित है, धरती संतरे जैसी है या तरबूज़ जैसी, इस तरह की सारी बहसें वस्तुतः नाकामियों के सीमांकन हैं, जो चाहिए, वह है कुछ विस्मयादिबोधक आश्चर्यवाहक । ऐसे चिह्नों द्वारा बोध्य विस्मय और बाह्य आश्चर्य ही इन कविताओं की दीप्ति है । इस दीप्ति ने हमारी समकालीन कविता को एक अलग और आकर्षक आभा में झलकाया है, मुझे भरोसा है कि इन कविताओं की ताज़गी और नवाचार से साक्षात्कार सभी के लिए प्रीतिकर होगा।
- वागीश शुक्ल
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