वरिष्ठ कथाकार रवीन्द्र कालिया का नया लघु उपन्यास ए.बी.सी.डी. पश्चिम में रह रहे प्रवासी भारतीयों के सांस्कृतिक संकट से हमें रू-ब-रू कराता है। यहाँ से जाने वाले लोग अपने साथ भारतीय संस्कार और संस्कृति लेकर जाते हैं, जबकि पश्चिम में उन्हें एक अलग ही परिवेश और संस्कृति मिलती है। भारतीयों की दृष्टि में पश्चिम की संस्कृति अपसंस्कृति है तो पश्चिम की दृष्टि में भारतीय संस्कृति पिछड़ी हुई और असभ्य ए.बी.सी.डी. इन्हीं दो विपरीत सांस्कृतिक छोरों के द्वन्द्व की एक सघन झलक पेश करता है।
पश्चिम जाने वाला प्रत्येक भारतीय अपने अन्दर एक लघु भारत बचाकर रखना चाहता है। उसके लिए भारत को बचाकर रखने का मतलब है अपनी रूढ़ियों और संस्कारों सहित अपनी सांस्कृतिक और धार्मिक चेतना को अपने अन्दर बचाकर रखना। लेकिन इन भारतीयों के सामने असली संकट तब पैदा होता है जब इनके बच्चे बड़े होते हैं जोकि पाश्चात्य संस्कृति में ही पले और बढ़े हैं, जिनके खून में तो भारत है पर परिवेश में पश्चिम। इस तरह घर-घर में एक सांस्कृतिक द्वन्द्व का जन्म होता है। उपन्यास में एक ओर जहाँ भारतीय संस्कृति में पले-बढ़े शील और हरदयाल हैं तो दूसरी ओर अमेरिकी संस्कृति में पली-बढ़ी शीनी और नेहा हैं, जो भारतीय संस्कृति के बारे में संशयग्रस्त हैं और इसके साथ तालमेल नहीं बिठा पाती हैं ये द्वन्द्व दो पीढ़ियों के बीच का द्वन्द्व न होकर दो भिन्न संस्कृतियों या जीवन मूल्यों के बीच का द्वन्द्व है।
रवीन्द्र कालिया इस नितान्त नये कव्य और विषय पर पूरी रचनात्मक सावधानी के साथ चलते हैं। वहाँ न किसी पक्ष को स्याह या सफेद बनाने की कोशिश है, न ही किसी तरह की अवांछित पक्षधरता । विषय के प्रति तटस्थता ही उपन्यास का वह बिन्दु है जहाँ से दोनों संस्कृतियों के बीच का संक्रमण और द्वन्द्व पूरी शिद्दत के साथ उभरता दिखाई देता है। रवीन्द्र कालिया का सुगठित द्वन्द्वयुक्त चुहल भरा गय अपनी विशिष्ट अभिव्यक्ति के कारण हिन्दी में अप्रतिम स्थान रखता है। कालिया जी के छोटे-छोटे सघन वाक्य तो जैसे नये मुहावरों की निर्मिति करते हैं। ये मुहावरे कोरी भावुकता का शिष्ट ढंग से उपहास करते हैं। ए.बी.सी. डी. पाठ के समय जहाँ गुदगुदी पैदा करता है वहीं अपने प्रभाव स्वरूप दे तक चुभता भी है और हमारी चेतना को बेचैन किए रहता है।
- मनोज कुमार पाण्डेय
Log In To Add/edit Rating
You Have To Buy The Product To Give A Review