रति का कंगन हिन्दी के वरिष्ठ साहित्यकार सुरेन्द्र वर्मा की नवीनतम विशिष्ट नाट्य-कृति है। दिव्य के पीछे कभी गर्हित भी होता है लेकिन गर्हित का ही रूपान्तर फिर दिव्य में हो जाने की क्षत-विक्षत नाट्य-कथा है- रति का कंगन । परम स्वार्थी मल्लिनाग की उपस्थिति प्रथमदृष्टया 'गीता' से सम्बन्धित विषय के शोधार्थी के रूप में होती है लेकिन अकादमिक संसार में मनोदेहिक क्षुद्रताओं का शिकार बन धनार्जन की खातिर उसे 'कामसूत्र' के लेखन के लिए विवश होना पड़ता है। मानक सिद्ध होते ही, इस कालजयी कृति की सतत विक्रय वृद्धि के कारण प्रकाशक की लालची दृष्टि पड़ जाने से मल्लिनाग को अपना धनार्जन का बुनियादी लक्ष्य पूरा हुआ नहीं लगता। फिर 'कामसूत्र' पर पड़ती है नैतिकता के स्वयम्भू ठेकेदार की कोपदृष्टि। पुनश्च निराशा की गहरी अँधेरी रात से निकलकर अन्ततः समरस वीतराग तक पहुँच जाने की मनःस्थिति- इसी का नाम है रति का कंगन । नाटक का उत्तरार्ध राग-भाव के अनेक वंचक व्यवहारों से सना हुआ है। प्रतिशोध की दुर्भावना से सम्पृक्त कौटिल्य का मल्लिनाग और अपनी पुत्री मेघाम्बरा की ज़िन्दगी में ज़हर घोलना, कामिनी श्रीवल्लरी की बौखलाहट, चिरकुमारी आचार्य लवंगलता की अपने शोधार्थी युवा मल्लिनाग में अनुरक्ति विवाहिता नवयुवती कोकिला का त्रिकोणी स्वच्छन्द प्रेम आदि अनेक घटनाएँ कामसूत्र से उपजे अर्थ - अनर्थ की व्याख्या करती हैं। इस तरह शृंगार के सहारे विविध रसानुभूतियों को खंगालने वाली यह कृति नाट्यभाषा एवं कला की नयी धार देती है।
सुरेन्द्र वर्मा (Surendra Verma )
सुरेन्द्र वर्मा
जन्म : सितम्बर, 1911
शिक्षा : एम.ए. (भाषाविज्ञान)
अभिरुचियाँ : प्राचीन और मध्यकालीन भारतीय इतिहास, सभ्यता एवं संस्कृति; रंगमंच तथा अन्तरराष्ट्रीय सिनेमा में गहरी दिलचस्पी ।
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