उपन्यास में कथावस्तु के साथ दो महत्वपूर्ण अवयवों की परख की जाती है वह है भाषा और शैली। किसी कहानी को उपन्यास का रूप देने में यदि विस्तार की भाषा है तो यह सरस नहीं बनी रहती। लेकिन यदि यह भाषा में विस्तृत होता हुआ है और दिलचस्पी सिर्फ कथा-मोड़ के कारण ही नहीं बल्कि शैली यानी शिल्पगत वैशिष्ट्य के कारण भी है तो दिलचस्पी पूरा पढ़ लेने के बाद भी बनी रहती है उत्सुकता का उत्साह भी भाषा के स्तर पर वाग्जाल नहीं है। कथा के विस्तार में अन्योक्ति नहीं है, और शैली के स्तर पर सामासिक अभिव्यक्ति है, आलंकारिक सौंदर्य की शाब्दिक उपमाएं हैं। देखिए :
साधना और साधन में इतना संघर्ष क्या हमारे सारे जीवन में ही उथल पुथल नहीं मचाए है? इस शोर का कोई कुछ नहीं कर सकता था। वह भी नहीं।
यह कौन सा शोर है? शोर है कि विलाप ? कि शोर और
विलाप के बीच का कुछ ? विपश्यना तो नहीं ही है तो
फिर क्या है?
विराट दुनिया है स्त्री की देह स्त्री का मन उसकी देह से भी विराट ।
चंदन है तो वह महकेगा ही वह महक उठता है।
बाहर हल्की धूप है, मन में ढेर सारी ठंड ।
नींद में ध्यान ।
विपश्यना में वासना का कौन सा संगीत है यह?
शब्द-शब्द हम कथा में आगे बढ़ते हैं। ऐसे वाक्य सिर्फ अभिव्यक्ति भर नहीं हैं बल्कि ये कथा के प्रवाह को आगे बढ़ाते हैं बिल्कुल अलग आस्वाद के प्रभाव के साथ कथाप्रवाह के आगे बढ़ने के लिए विभिन्न चरित्र भी हैं, लोकेशन भी और लेखक की दृष्टि आधारित टिप्पणियां भी स्त्रियों के पक्ष में सोचते हुए यशोधरा और सीता की ओर से भी सोचा गया है और लेखक ने अपने कुछ प्रश्न उठाए हैं। यह समझने के लिए कि यदि कोई स्त्री अपने मौन विलाप में इस शिविर में आयी है तो उसका आत्यन्तिक कारण क्या हो सकता है। इसे ढूंढने लेखक सिद्धार्थ की मानसिकता में जाता है और मैथिलीशरण गुप्त की कविता के जरिये यशोधरा के विलाप तक भी द्रौपदी तक भी यह जाना फिर लोकेशन में भी बदल सकता है। दार्जिलिंग या फिर गोभी के खेत का चबूतरा या युवा दिन या नदी की तलहटी या बॉटनिकल गार्डेन और फिर लौट के आना, रहना। चुप की राजधानी में लगभग हर तीसरे अनुच्छेद में स्त्री के विलाप पर ध्यान है। चरित्रों में मुस्लिम महिला मित्र भी है, अंग्रेज़ लड़का भी, आस्ट्रेलियाई भी, फ्रांसीसी भी और साधु-साधु बोलता साधु भी। रूसी चरित्र तो कथा की नायिका ही है।
कथा की भाषा का संगीत की भाषा में भी अनुवाद हुआ है। परस्पर संपर्क के विवरण विशेषकर देह संसर्ग की सूक्ष्म सक्रियता को संगीत की भाषा में मर्यादा दी गयी है। कभी बांसुरी के स्वर से तो कभी मालकौंस के राग विस्तार से ।
भाषा और शैली ही कथा को क्रमशः विस्तार देते हैं और पूरा उपन्यास एक ही बार में पूरा पढ़ जाता है। लगता है, किसी लंबी यात्रा से लौटे हों, बिना थके। अंतिम बार 'नीला चांद' पढ़ कर भी थोड़ा थके थे। विनय और मल्लिका का प्रेम जुड़ाव विपश्यना शिविर के अनुशासित मौन में घटता और पल्लवित होता है। यहां भी भाषा एक बड़ी भूमिका में है। भारतीय और रूसी भाषा, मौन की भाषा, देह की भाषा और विपश्यना की भाषा। इस भाषिक कथामयता पर फ़िल्म भी बहुत अच्छी बन सकती है। देह के स्तर पर अंततः आ जाने के परिणति निकष पर उपन्यास पाठक को सावधान भी करता है। विपश्यना में मन से संसार ही छूटता है लेकिन यहां कथा संसार को कस कर पकड़ना और पकड़े रखना चाहती है और अंततः परिणति पाठक को उसके ध्यान शिविर में पहुंचा देती है, संसार के प्रति सावधान कर प्रेम में विपश्यना की ओर ध्यान अब जाता है। प्रशंसा यहां इसी कारण उपन्यास की है।
साधु साधु !
-गौतम चटर्जी
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