मदारीपुर गाँव उत्तर प्रदेश के नक्शे में ढूँढें तो यह शायद आपको कहीं नहीं मिलेगा, लेकिन निश्चित रूप से यह गोरखपुर जिले के ब्रह्मपुर नाम के गाँव के आस-पास के हजारों-लाखों गाँवों से ली गयी विश्वसनीय छवियों से बना एक बड़ा गाँव है जो भूगोल से ग़ायब होकर उपन्यास में समा गया है। उल्लेखनीय है कि ब्रह्मपुर वह स्थान है जहाँ उपन्यासकार वालेन्दु द्विवेदी का बचपन बीता।
मदारीपुर में रहने वाले छोटे-बड़े लोग अपने गाँव को अपनी सम्पूर्ण दुनिया मानते हैं। इसी सोच के कारण यह गाँव संकोच कर गया और क़स्बा होते-होते रह गया। गाँव के केन्द्र में 'पट्टी' है जहाँ ऊँची जाति के लोग रहते हैं। इस पट्टी के चारों ओर झोपड़पट्टियाँ हैं जिनमें तथाकथित निचली जातियों के पिछड़े लोग रहते हैं। यहाँ कभी रहा होगा ऊँची जाति के लोगों के वर्चस्व का जलवा ! लेकिन आपसी जलन, कुंठाओं, झगड़ों, दुरभिसन्धियों और अन्तःकलहों के रहते धीरे-धीरे अन्ततः पट्टी के इस ऊँचे वैभव का क्षरण हुआ। सम्भ्रान्त लोग लबादे ओढ़कर झूठ, फरेब, लिप्सा और मक्कारी के वशीभूत होकर आपस में लड़ते रहे, लड़ाते रहे और झूठी शान के लिए नैतिक पतन के किसी भी बिन्दु तक गिरने के लिए तैयार थे। पट्टी में से कई तो इतने खतरनाक थे कि किसी बिल्ली का रास्ता काट जाये तो बिल्ली डर जाये और डरपोक इतने कि बिल्ली रास्ता काट जाये तो तीन दिन घर से बाहर न निकलें। फिर निचली कही जाने वाली बिरादरियों के लोग अपने अधिकारों के लिए धीरे-धीरे जागरूक हो रहे थे। और समझ रहे थे-पट्टी की चालपट्टी..!
एक लम्बे अन्तराल के बाद मुझे एक ऐसा उपन्यास पढ़ने को मिला जिसमें करुणा की आधारशिला पर व्यंग्य से ओतप्रोत और सहज हास्य से लबालब पठनीय कलेवर है। कव्य का वक्रोक्तिपरक चित्रण और भाषा का नव-नवोन्मेष, ऐसी दो गतिमान गाड़ियाँ हैं जो मदारीपुर के जंक्शन पर रुकती हैं। जंक्शन के प्लेटफ़ॉर्म पर लोक तत्वों के बड़े-बड़े गट्ठर हैं जो मदारीपुर उपन्यास में चढ़ने को तैयार हैं। इसमें स्वयं को तीसमारखाँ समझने वाले लोगों का भोलापन भी है और सौम्य दिखने वाले नेताओं का भालापन भी। और प्रथमदृष्टया कुल मिलाकर 'मदारीपुर जंक्शन अत्यन्त पठनीय उपन्यास बन पड़ा है। लगता ही नहीं कि यह किसी उपन्यासकार का पहला उपन्यास है। बधाई मेरे भाई!
-अशोक चक्रधर
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