मृदुला गर्ग की वे नायाब औरतें क़िताब को हम संस्मरण-स्मरण-रेखाचित्र या आत्मकथा जैसे रवायती फ़ॉर्मेट में फ्रेमबद्ध नहीं कर सकते। क्योंकि इसमें बे-सिलसिलेवार, लातादाद 'यादों के सहारे चल रही आपबीती है'- जिसका हर पात्र या उसके तफ़सील का सिरा एक मुकम्मल क़िस्सागोई का मिज़ाज रखता है। यह उनका एक ऐसा अनूठा प्रयोग है जो अब तक के सारे घिसे-पिटे अदब की आलोचना के औज़ारों को परे कर मौलिक विधा के रूप में नज़र आता है। दरअस्ल, ये यादों से सराबोर क़िरदारों की ऐसी कहानी है जो लीक, वर्जनाओं, सहमतियों के बरअक्स अपनी निजी धारणाओं को बेलौस बेबाकी से व्यक्त कर पाठक को प्रभावित करते हैं। इसमें शुमार औरतें, चाहे क्रान्तिकारी नादिया हो या अपढ़-भदेस आया स्वर्णा, बादलों से बनी माँ हो या सौतेली दादी चन्द्रावती, पिता की लाड़ली बेटियाँ हों या माँ-पिता की सखियाँ-मुख़्तसर सी बात ये है कि सभी उसूलों के मिलन पर, मुख्तलिफ़ मिज़ाज रखते हुए भी, यकसाँ हैं। ये क़िताब उत्सुकता से भरा ऐसा तिलिस्म है, जिसमें जाये बगैर आप रह नहीं सकते। 'मैं सहमत नहीं हूँ'- इस कृति में आये एक क़िरदार का जुमला ही वह सूत्र है जिसे लगाकर सारी वे नायाब औरतें के वैचारिक-चारित्रिक गणित को हल किया गया है। एक और दिलचस्प पहलू, इसमें पुरुषों के बज़रिये ही क़िस्सागोई के काफी कुछ हिस्से को अंजाम दिया है, यानि औरतों के मार्फत पुरुष भी दाखिल हैं। इसमें देश-विदेश में मिलीं वे सब औरतें हैं जो सनकी, ख़ब्ती और तेज़तर्रार तो हैं पर उसूलन अडिग और रूढ़ियों, वर्जनाओं को तोड़ती या कारामुक्त होती हुई-निडर, दुस्साहसी, बेख़ौफ़ लेखिकाएँ भी शामिल हैं, परन्तु लेखन की लोकप्रियता के चलते नहीं बल्कि अपनी किसी खासियत के कारण। मृदुला गर्ग सिद्धहस्त लेखिका हैं, बनावटीपन से कोसों दूर; मगर उनकी क़लम का कमाल इस कृति का क्लाइमेक्स है, साथ ही करुणा-आपूर्तता का संवेदनशील मार्मिक गहन आलोड़न... यह विधाओं से परे की विधा की पठनीय कृति है। -दिनेश द्विवेदी विख्यात कवि और स्वतन्त्र पत्रकार एवं लघु पत्रिका 'पुनश्च' के मनस्वी सम्पादक
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