हिन्दी साहित्य के इतिहास में साठ का दशक, निर्मल वर्मा, चेकोस्लोवाकिया और यूरोप-लगभग अभिन्न हो गये हैं। इस दौरान निर्मल वर्मा ने यूरोप की धड़कन, उसके गौरव और शर्म के क्षणों को बहुत नज़दीक से देखा-सुना। इस लिहाज से यह पुस्तक एक ऐसी नियतिपूर्ण घड़ी का दस्तावेज है, जब बीसवीं शती के अनेक काले-उजले पन्ने पहली बार खुले थे।
दुब्वेक काल का प्राग- वसन्त, सोवियत - स्वप्न का मोह भंग, पेरिस के बेरिकेडों पर उगती आकांक्षाएँ - ऐसी अभूतपूर्व घटनाएँ थीं, जिन्हें हमारी ढलती शताब्दी की छाया में निर्मल वर्मा ने पकड़ने की कोशिश की, किसी बने-बनाये आईने के माध्यम से नहीं बल्कि सम्पूर्णतया अपनी नंगी आँखों के सहारे।
ये निबन्ध कभी-कभी एक ऐसे 'एक्जाइल' लेखक के रिपोर्ताज जान पड़ते हैं, जिसने 'युद्ध' के मोर्चे पर घायल संस्कृतियों के घावों को जैसा देखा, वैसा ही आँकने की कोशिश की और भारतीय आत्म-सन्तोष से हटकर, खुद अपने देश की व्यवस्था को इन घावों में रिसता देखा।
यह पुस्तक एक बहस की शुरुआत थी- वामपन्थी विचारधारा को प्रश्नांकित करने की शुरुआत। इस पुस्तक में युवा चिन्तक निर्मल वर्मा पहली बार 'अलोकप्रिय' होने के खतरे उठाते दिखाई दिये थे- लेकिन इसके बाद फिर कभी किसी ने उन पर यह आरोप नहीं लगाया कि वह 'किसी भी बारिश' में भीगने से कतराये थे।
निर्मल वर्मा (Nirmal Verma )
निर्मल वर्मा (1929-2005) भारतीय मनीषा की उस उज्ज्वल परम्परा के प्रतीक-पुरुष हैं, जिनके जीवन में कर्म, चिन्तन और आस्था के बीच कोई फाँक नहीं रह जाती। कला का मर्म जीवन का सत्य बन जाता है और आस्था की चुनौत