भारत का भूमंडलीकरण की बुनियादी मान्यता यह है कि अमेरिका की राजनीतिक-आर्थिक चौधराहट और यूरोप की सभ्यतामूलक विश्व-दृष्टि के तहत संचालित यह प्रक्रिया भारतीय लोकतन्त्र के संस्थापक मूल्यों और संरचनाओं को बेहद रफ़्तार और निर्ममता से बदले दे रही है। यह संकलन इस अवश्यंभावी परिवर्तन की शिनाख्त करता हुआ उसकी आलोचना और विकल्पों की रूपरेखा प्रस्तुत करता है। विकासशील समाज अध्ययन पीठ (सीएसडीएस) द्वारा प्रायोजित लोकचिन्तन ग्रन्थमाला की इस तीसरी कड़ी में भूमंडलीकरण की राष्ट्रातीत परिघटना के सन्दर्भ में भारत को देखने की बजाय भारत के राष्ट्रीय और एशिया के सभ्यतामूलक सन्दर्भ में उस परिघटना को परखने का प्रयास किया गया है। इस पुस्तक की दिलचस्पी भारत के भूमंडलीकरण, उसके परिणामों और हश्र में है। भारत में भूमण्डलीकरण पर बहस उसके समर्थकों और विरोधियों में बँटी हुई है। दोनों का अखाड़ा अर्थतन्त्र है। लेकिन, बीच में एक ऐसी जगह भी है, जहाँ दोनों खेमों के असन्तुष्ट आपस में मिलते हैं। इस बीच के इलाके में संस्कृति और राजनीति के प्रश्न तैरते रहते हैं जिनके ऊपर पूरा ध्यान नहीं दिया जाता। भारत का भूमंडलीकरण इसी गुंजाइश की देन और इसी कमी को पूरा करने का एक यत्न है।
अभय कुमार दुबे (Abhay Kumar Dubey)
विकासशील समाज अध्ययन पीठ (सीएसडीएस) के भारतीय भाषा कार्यक्रम में सम्पादक। रजनी कोठारी, आशीष नंदी और धीरूभाई शेठ समेत अन्य कई समाज वैज्ञानिकों की प्रमुख रचनाओं का अनुवाद करने के अलावा लोक चिं
विकासशील समाज अध्ययन पीठ (सीएसडीएस) के भारतीय भाषा कार्यक्रम में सम्पादक। रजनी कोठारी, आशीष नंदी और धीरूभाई शेठ समेत अन्य कई समाज वैज्ञानिकों की प्रमुख रचनाओं का अनुवाद करने के अलावा लोक चिं