आलोचना-समय और साहित्य - 'आलोचना समय और साहित्य' किसी कृति या कृतिकार को केन्द्र में रखकर लिखी गयी समालोचना नहीं है। इसमें किसी प्रकार के सिद्धान्त निरूपण का दावा भी नहीं है। दरअसल यह अपने समय और साहित्य दोनों की सतत नवीन होती चुनौतीपूर्ण धाराओं में अन्दरूनी तौर पर बहने की एक छटपटाहट है। हिन्दी आलोचना के पास प्रत्यक्षतः दो परम्पराएँ हैं—एक अतीत की शास्त्रीय परम्परा जिसे वह गर्व के साथ वहन करती आई है; दूसरी पश्चिम की परम्परा है, जो आधुनिक से उत्तर-आधुनिक तक के तमाम साहित्य कला-आन्दोलनों की पहचान से जुड़ी है। यहाँ न पहली परम्परा का मोह है, न दूसरी के प्रति प्रीत और न ही किसी तीसरी परम्परा की खोज की आकांक्षा। यहाँ वास्तव में आलोचना को एक विचार की तरह आज़माया गया है। इस रचना में हिन्दी आलोचना को साहित्य के उन्मेष में परखने का उद्यम है। आशा है इससे पाठक की आलोचनात्मक जिज्ञासा जाग्रत होगी और वह कुछ नये आयामों की आहटों को भी महसूस कर सकेगा। भारतीय ज्ञानपीठ श्री रमेश दवे की इस प्रज्ञामयी कृति को प्रस्तुत करते हुए प्रसन्नता का अनुभव करता है।
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