आदिवासी लोक की यात्राएँ - देश की स्वतन्त्रता के पश्चात् संविधान एवं अन्य सरकारी योजनाओं में आदिवासी विकास के बहुत से प्रावधान बनाये गये हैं। ब्रिटिश काल से लेकर अब तक हुए शोध व अध्ययनों की भी कमी नहीं है। यह सब कुछ होने के बावजूद आदिवासी विकास की गति अत्यन्त धीमी रही। लोकतान्त्रिक असरदार आदिवासी नेतृत्व पैदा नहीं हो सका। आदिवासी समाज के विभिन्न विषयों पर लम्बे अर्से से अध्ययन, चिन्तन व सृजनात्मक लेखन को समर्पित हरिराम मीणा ने भारत के भौगोलिक स्तर पर दुर्गम पहाड़ों, जंगलों व समुद्रों के बीच आदिम जीवन जी रहे दर्जनों आदिम समुदायों के ठिकानों की लम्बी-लम्बी यात्राएँ की हैं। इस यायावरी के दौरान उन्होंने आदिवासी समाज के अनेक विशेषज्ञों से चर्चा की है और आदिवासी जीवन के भिन्न-भिन्न पहलुओं की गम्भीर परख की है जिसमें इन आदिम समुदायों के उद्भव, मिथक, किंवदन्तियों, दर्शन, संस्कृति, आर्थिक,सामाजिक,राजनैतिक दशा, परम्परागत ज्ञान पद्धति और मनोविज्ञान आदि की खोज का बहुत महत्त्वपूर्ण काम है। यह कृति उस आदिवासी समाज के यथार्थ से हमें परिचित कराती है जिसने सदियों से देश की प्राकृतिक सम्पदा का संरक्षण ट्रस्टी अथवा कस्टोडियन की हैसियत से किया है। विडम्बना यह है कि वही आदिवासी समाज आज अपनी अस्मिता को लेकर चौतरफ़ा दबावों से घिरा हुआ है और बाहरी घुसपैठियों से जूझता अपने अस्तित्व के लिए त्रासद समय में जी रहा है। हरिराम मीणा की इस यायावरी को पढ़कर ऐसी समस्त भ्रान्तियाँ परत-दर-परत उधड़ती चली जाती हैं और उम्मीद की जा सकती है कि आदिवासी समाज के विषय में पाठक एक नयी दृष्टि व सोच के साथ इस समाज के समग्र विकास की मुहिम से जुड़ने को प्रेरित होगा।
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