टांग खींचने की कला - रामस्वरूप दीक्षित हिन्दी व्यंग्य में परसाई परम्परा के प्रमुख लेखकों में शुमार है। धर्मयुग जैसी अपने समय की कालजयी पत्रिका से अपने लेखन की शुरुआत करने वाले इस लेखक के पास अपनी एक ख़ास तरह की व्यंग्य दृष्टि है, जिसके बूते वे विसंगतियों की गहरी पड़ताल ही नहीं करते वरन् उन पर जमकर प्रहार करते हुए एक संवेदनशील और स्वस्थ मानवीय व्यवस्था के निर्माण में अपनी रचनात्मक भूमिका का बख़ूबी निर्वाह करते हैं। वे विसंगतियों के ख़िलाफ़ व्यंग्य को एक मुक़म्मल हथियार मानते हैं और उसका बेहद सधा हुआ इस्तेमाल करते हैं। उनके पास अपनी ख़ुद की अर्जित एक ऐसी व्यंग्य भाषा है जो उनके लेखन में ऐसी धार पैदा करती है जो औरों के लेखन में प्राय: नहीं मिलती। विषय वैविध्य उनके लेखन की विशेषता है। राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक व सांस्कृतिक अधःपतन के विचलन से पैदा हुआ उनका लेखन पाठकों में लोकप्रिय रहा है। उनका लेखक तमाम रीढ़विहीन लेखकों से अलग तनकर खड़ा होता है जिसे अलग से पहचाना जा सकता है। सत्ता प्रतिष्ठानों के विरोध में खड़ा उनका लेखन अपने समय से टकराते हुए उससे दो-दो हाथ करता है। उनके व्यंग्य पाठक की अन्तश्चेतना को झंकृत करते हुए उसके भीतर परिवर्तन की चेतना जगाते हैं, जो कि एक सार्थक व्यंग्य लेखन का उद्देश्य है। प्रखर वामपन्थी चेतना से लैस ये लेखक अपने समकालीनों में अपनी अलग पहचान बनाने में सफल रहा है। इस संग्रह के व्यंग्य पढ़कर आप अपने भीतर एक विचलन महसूस करते हुए प्रतिरोध की ताक़त को पहचान सकेंगे। हम इस संग्रह को प्रकाशित करते हुए मूल्याधारित लेखन को आपके सामने लाने के अपने मिशन को आगे बढ़ाते हुए प्रसन्नता का अनुभव करते हैं। सर्वथा एक पठनीय कृति।
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