मैं गंगा बोल रही - डॉ. रमेश पोखरियाल 'निशंक' जी ने 'मैं गंगा बोल रही' शीर्षक एक खण्डकाव्य की रचना की है। यह खण्डकाव्य भारत की पृष्ठभूमि में आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, ऐतिहासिक, भौगोलिक तथा शैक्षणिक दृष्टियों से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इसमें कुल मिला कर पन्द्रह (15) सर्ग हैं। प्रत्येक सर्ग में आलंकारिक कथा विन्यास के माध्यम से कवि डॉ. पोखरियाल जी समग्र मानवसमुदाय को एक सारस्वत सन्देश दे रहे हैं। 'मैं गंगा बोल रही' खण्डकाव्य के अध्ययन से जो निष्कर्ष हर पाठक के हृदय को हमेशा स्पर्श करता है। वह है—गंगा केवल भारत या विश्व का एक अनमोल धरोहर नहीं है, बल्कि यही है हमारी स्नेहमयी, कृपामयी अमृतवर्षिणी माता। वही माँ अपने स्पर्श और आशीर्वाद से मानव समुदाय के समस्त दुःख, पाप और कालुष्य को प्रक्षालन करती हुई समग्र वसुन्धरा को विश्वकल्याण के लिए सुजला, सुफला और सस्यश्यामला बना देती है। परन्तु गम्भीर दुःख का यह विषय है कि, सम्प्रति यही परमपावनी, पाप प्रक्षालिनी, कालुष्यमोचिनी माँ गंगा मलिना और प्रदूषिता हो गयी है। इसलिए विश्वभर में एक व्यापक जन सचेतना की आवश्यकता को लक्ष्य बनाकर कविवर ने जो पन्द्रह सर्ग विशिष्ट महाकाव्य की रचना की, इसके लिए वे हमेशा प्रशंसनीय और अभिनन्दनीय हैं। सर्वथा एक अति पठनीय व संग्रहणीय कृति। अन्तिम आवरण पृष्ठ - माँ गंगा पृथ्वी पर जिस उद्देश्य हेतु अवतरित हुई वह आज भी अपने कर्मपथ पर अविरल प्रवाहमान होकर उसी कार्य में रत है। स्वर्ग से धरती पर आते हुये उसे जो कठिनाइयाँ, जो वेदना उसके मानस ने झेली हैं वे सब अवर्णनीय हैं। हमारी न तो इतनी सामर्थ्य और न इतनी विद्वता है कि हम उसकी उस संघर्षमयी यात्रा को अनुभूत कर सकें। वह तमाम थेपेड़ों को सहते हुए भी आज भी मानव कल्याण के अपने कर्म से विमुख नहीं है, किन्तु क्या मानव कटिबद्ध है अपने दायित्वों और माँ गंगा के प्रति अपनी ज़िम्मेदारियों के लिए? पहाड़ों से उतरते हुये धीरे-धीरे माँ गंगा का आँचल प्रदूषणों के दुष्प्रभाव से मैला हुआ जा रहा है। मैं दिनभर में न जाने कितनी बार माँ गंगा का स्मरण करता हूँ। यूँ तो गंगा की ओजस्वी, निर्मल जलधारा सदा ही पवित्र रही है, लेकिन पतित पावनी इस अमृतधारा के प्रति बेपरवाही, लापरवाही अक्षम्य है। यह समस्त जीव-जगत को संकट में ला सकता है। इसलिए यह आवश्यक है कि हम माँ गंगा की आरती उतारने के साथ-साथ उसकी स्वच्छता और निर्मलता बनाये रखने का संकल्प भी लें।
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