चुनी हुई सुबह की प्रार्थनाएँ - पारम्परिक अर्थ में हम जिन्हें प्रार्थना कहते-समझते रहे हैं, अपनी प्रति और अन्विति में ये उनसे नितान्त भिन्न हैं। अपने स्वरूप और संरचना में ये समकालीन कविताएँ हैं जो अधिकांशतः ईश्वर को सम्बोधित हैं। किन्तु कौन-सा ईश्वर अथवा देव? यह ईश्वर की भी धर्म विच्छिन्न धारणा है। कुछ कविगुरु रवीन्द्र की गीतांजलि के गीतों की तरह, इनमें भी ईश्वर को प्रभु सम्बोधित किया गया है। और कुछ अंग्रेज़ी के मेटाफिज़िकल कवियों की तरह, कल्पना की उड़ान भरते हुए, अल्माइटी-सर्वशक्तिमान सत्ता की विनय में प्रतिश्रुत—किसी संस्थागत धर्म की ईश्वरीय धारणा अथवा विश्वास से इनका कोई सम्बन्ध नहीं है। अशोक वाजपेयी अक्सर धर्मरहित अध्यात्म की अवधारणा को प्रस्तुत करते रहे हैं। पुरुषोत्तम अग्रवाल जैसे कुछ विचारकों ने इसे व्याख्यायित करने की कोशिश की है। हिन्दी साहित्य सामान्यतः धर्म निरपेक्ष रहा है। उसमें कहीं धर्म आता है तो उसके उदार मानवीय व्यवहार के लिए ही पक्षधरता रही है। निश्चित रूप से अभी तक हमारे साहित्य का यह एक उज्ज्वल पक्ष रहा है। इन कविता श्रृंखलाओं की प्रार्थनाओं में कोई विधि-विधान अथवा किसी तरह का अनुष्ठान नहीं है। ये बस किंचित प्रार्थना के शिल्प में अज्ञात को निमित्त मानते हुए शुभाशंसाएँ हैं। यहाँ कोई विनीत भाव भी नहीं है। करुणा ज़रूर है जो उनके लिए है जिनके लिए होनी ही चाहिए। प्रार्थनाएँ किसी वैराग्य अथवा विरक्ति से प्रस्यूत नहीं हैं। बल्कि इस भौतिक जीवन में अनुरक्ति के बावजूद ठहर कर आत्म-अवलोकन करते हुए आत्म-उन्मीलन का आग्रह भर है। वहाँ मनुष्य ही नहीं, समस्त प्राणीजगत् और प्रकृति के लिए साहचर्य-भाव से चिन्ता और सदिच्छा है। ये कविताएँ, हमसे आत्मानुभूति और चिन्तन का आग्रह करते हुए समष्टि से सम्बद्धता और सापेक्षता की अपेक्षा रखती हैं।-राजाराम भादू
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